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Friday, November 14, 2025
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भारत छोड़ो आंदोलन में जिस स्वयंसेवक को मिली थी फांसी की सजा, उसी ने खड़ा किया वनवासी कल्याण आश्रम – quit India movement rss member death penalty vanvasi kalyan ashram rss 100 years ntcppl

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों के बीच जब भी नागपुर के पास रामटेक की चर्चा होती है, तो उसे दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर की जन्मस्थली के तौर पर जाना जाता है. लेकिन रामटेक की एक घटना संघ के इतिहास में बहुत ही दिलचस्प है. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक संघ स्वयंसेवक ने तहसील कार्यालय पर लहरा रहा यूनियन जैक यानी ब्रिटिश सरकार का झंडा उतार फेंका था. जिसके चलते उसे फांसी की सजा सुना दी गई थी. किस्मत से उस सजा से बचे तो सारा जीवन आदिवासियों के कल्याण में लगा दिया और उन्हीं को श्रेय जाता है संघ से जुड़े संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम (ABVKA) की स्थापना और उसके विस्तार का. नाम था रमाकांत केशव देशपांडे, जो बाद में बालासाहेब देशपांडे के नाम से प्रसिद्ध हो गए.

विदर्भ के अमरावती में पैदा हुए रमाकांत की मां लक्ष्मीबाई देवरस परिवार से थीं. इस तरह उनका पारिवारिक रिश्ता बाद में संघ के तीसरे सरसंघचालक बने बाला साहब देवरस से भी था. वह किशोर उम्र से ही डॉ हेडगेवार के सम्पर्क में आ गए थे और स्वयंसेवक बन गए थे. नागपुर के उसी हिस्लॉप कॉलेज से उन्होंने ग्रेजुएशन किया, जहां गुरु गोलवलकर ने भी पढ़ाई की थी. उन्होंने कुछ समय वकालत में बिताया और फिर सरकार के राशन विभाग में नौकरी लग गई . गुरु गोलवलकर के सम्पर्क आने के बाद, जब भी मौका मिलता वो देश की समस्याओं पर उनसे चर्चा करते, उन्हें लगता था कि गुरु गोलवलकर के विचार उनसे काफी मिलते हैं. नौकरी मिलने से पहले वो गुरु गोलवलकर की ही तरह रामकृष्ण मिशन के सम्पर्क में भी आ गए थे.

फांसी की सजा से कैसे मिली माफी

सरकारी नौकरी उन्हें कतई नहीं भाई, वहां इतना ज्यादा भ्रष्टाचार था कि हर कोई लिप्त था, जो देशपांडे सहन नहीं कर पाए, नौकरी से इस्तीफा देकर फिर से अपनी वकालत की प्रैक्टिस करने लगे. इसी बीच 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया. उन दिनों देशपांडे रामटेक तहसील में संघ के नगर कार्यवाह थे. तहसील, कोर्ट, कचहरी से उनका रोज का नाता था, वकील होने के नाते, उन्हें जज, वकील, अधिकारी पहचानते थे. लेकिन बड़े कांग्रेस नेताओं के जेल जाने के बाद आंदोलन बेकाबू हो गया था. उसके चलते जनता के अलग-अलग गुट जो चाहे वो कर रहे थे, कहीं ट्रेन रोक लेते थे, कहीं सरकारी वाहन या कार्यालयों में आग लगा देते थे.

हर कोई जोश में था, संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर अपने स्वयंसेवकों से पहले ही कह चुके थे कि व्यक्तिगत रूप से वो आजादी के किसी भी आंदोलन में भाग ले सकते हैं. ऐसे में देशपांडे ने रामटेक में मोर्चा संभाल लिया, यदुवंश बहादुर माथुर अपनी किताब ‘क्विट इंडिया मूवमेंट’ में लिखते हैं कि, “नागपुर-छिंदवाड़ा रूट नेरो गेज लाइन पर पांच स्टेशन जला दिए गए थे, रामटेक तहसील में भी कई सरकारी इमारतें जला दी गई थीं”. गांधीजी के आंदोलन को हिंसक बना दिया गया था, लेकिन फिर भी देशपांडे ने सहयोगियों के साथ केवल तहसील का घेराव किया और उसके ऊपर लगा यूनियन जैक उतार फेंका.

(Photo: AI generated)

चूंकि हर कोई उन्हें जानता था, बाकी लोग भले ना पकड़े गए हों, अंग्रेज जज ने तहसीलदार हरकारे और कवि देशपांडे के बयानों के आधार पर बालासाहेब देशपांडे को फांसी की सजा सुना दी. शायद गवाहों को इतनी बड़ी सजा की उम्मीद नहीं रही होगी, वैसे भी जिस तरह का देशभक्ति का माहौल था और बालासाहेब देशपांडे का जो जलवा था, उसके चलते दोनों गवाहों ने अपने बयान को बदल दिया. ब्रिटिश कानून के तहत ये जरूरी था कि सजा सुबूतों और गवाहों के आधार पर ही सुनाई जाए. जज के लिए अब मुश्किल हो गई थी. यूनियन जैक को हटाने के जुर्म में फांसी वैसे भी लोगों को बड़ी सजा लग रही थी, लेकिन अंग्रेज देशद्रोह को सबसे बड़ा अपराध मानते थे और उनकी नजर में ये उनकी सत्ता को चुनौती देने जैसा मामला भी था.

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आखिरकार जज को उनकी फांसी की सजा रद्द करनी पड़ी और कुछ दिन में ही वो जेल से भी बाहर आ गए. उसके बाद उन्होंने प्रभावती से विवाह कर लिया और कुछ दिनों के लिए शांति की राह ले ली. लेकिन 1946 में हुई एक घटना ने उनको भारत के आदिवासी इतिहास का एक बड़ा चेहरा बना दिया. 1946 में सेंट्रल प्रॉविंस और बरार (आज का मध्यप्रदेश) के मुख्यमंत्री बने रविशंकर शुक्ला. उनका हर जगह स्वागत हो रहा था, जहां भी जाते, लोग उनके लिए नारे लगाते. लेकिन जब वो जसपुर (अब छत्तीसगढ़ में) पहुंचे तो उन्हें काले झंडे दिखाए गए, वो भी एक नहीं कई जगहों पर, तो वो हैरान रह गए. जब उन्होंने विरोध का कारण पता करवाया तो जानकारी मिली कि इन लोगों और इनके विरोध के पीछे विदेशी ताकतें और इस इलाके में आदिवासियों के बीच काम कर रही ईसाई मिशनरीज हैं.

तब शुक्ला ने आदिवासियों के बीच दशकों से काम कर रहे कांग्रेस के वरिष्ठ गांधीवादी नेता ठक्कर बापा से सलाह ली. बप्पा ने 1922 में भील सेवा मंडल स्थापित किया था और 1943 में गांधीजी द्वारा स्थापित संगठन हरिजन सेवक संघ के महासचिव रहे थे. बप्पा ने सुझाव दिया कि जसपुर के इलाके में कोई भी राष्ट्रवादी संगठन या संस्था नहीं है. इसलिए वो ईसाई मिशनरियों के सम्पर्क में आते जा रहे हैं. तब अगली साल शुक्ला ने ‘बैकवर्ड कम्युनिटी सोसायटी वैलफेयर डिपार्टमेंट’ वहां खुलवा दिया और वहां बप्पा के करीबी पांडुरंग गोविंद वनिकर जी को इस विभाग का निदेशक बनाकर भेज दिया गया. वनिकर के लिए ये काम पहाड़ तोड़ने जैसा था, तब उन्होंने मुख्यमंत्री शुक्ला को संघ के नगर कार्य़वाह को इस कार्य से जोड़ने की बात कही.

1948 में फिर से सरकार के साथ काम करने लिए देशपांडे और उनकी पत्नीं जसपुर पहुंच गए. शुरुआत में मुख्यमंत्री शुक्ला ने कुल 8 स्कूलों के लिए फंड दिया. दरअसल उस इलाके में 100 स्कूल मिशनरियों के देखकर देशपांडे ने सलाह दी थी कि वो भी इतने ही स्कूल वहां खोलेंगे और शुरू हो गए अपने 100 स्कूल खोलने के अभियान में और ये काम 108 स्कूल खोलकर खत्म किया. जिन आदिवासियों ने सीएम को काले झंडे दिखाए थे, उन्होंने ही बाद में ठक्कर बापा पर फूल बरसाए.

ऐसे रखी गई वनवासी कल्याण आश्रम की नींव

1951 में ठक्कर बापा की मौत के बाद देशपांडे इस प्रोजेक्ट से दूर हो गए. उनका ट्रांसफर चंद्रपुर (अब महाराष्ट्र में) कर दिया गया. तब नौकरी से इस्तीफा देकर मुक्त होने के बाद उनकी एक ऐतिहासिक बैठक गुरु गोलवलकर के साथ हुई. इसमें उन्होंने आग्रह किया कि वो जिदंगी भर आदिवासियों की सेवा करना चाहते हैं, एक नई संस्था खड़ी करना चाहते हैं. संघ प्रचारक बनने को भी तैयार हैं. गुरु गोलवलकर ने मध्य प्रांत के  संघचालक हरिभाऊ केतकर से उनकी मदद करने को कहा.

शुरूआत हुई जसपुर में 13 बच्चों का एक हॉस्टल खोलने की, जिसके लिए अपने एक महल के कुछ कमरे दिए थे, जसपुर के राजा विद्याभूषण सिंह जूदेव ने. राजा ने अपनी निजी कमाई का 10 प्रतिशत इस आश्रम को देते रहने का वायदा भी किया. जिस दिन आश्रम शुरू हुआ, यानी 26 दिसम्बर 1952 को, उस दिन उनका जन्मदिन भी था. इसका नाम रखा गया ‘वनवासी कल्याण आश्रम’. उसके बाद तो काम तेजी पकड़ता गया, पूरे आदिवासी इलाके में देशपांडे ने इतने स्कूल खड़े कर दिए कि शायद ही कोई ब्लॉक बचा था. धीरे धीरे ये कारवां बढ़ता चला गया. 1963 में गुरु गोलवलकर ने वनवासी कल्याण आश्रम के अपने मुख्यालय का अनावरण किया. ये जमीन भी राजा जूदेव ने ही दी थी. इसी मुख्यालय में पहली बार आयुर्वेदिक चिकित्सालय शुरू करके बालासाहेब ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में सेवा की शुरूआत की. वनवासी समाज को साथ लाने के लिए उन्होंने वनवासी कंवर समाज के संत पूज्य गहिरा गुरु जी महाराज के हाथों इस भव्य भवन का उद्घाटन करवाया.

1952 में खुले पहले आश्रम की चर्चा डॉ राजेन्द्र प्रसाद के पास भी पहुंची और उन्होने 1956 में राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में उसकी प्रशंसा भी की. वर्तमान संघ कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने उनको ‘समाज शिल्पी’ कहा तो ये गलत भी नहीं था, वनों में रहने वाले भोले भाले लोगों को विदेशी लोग अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर रहे थे, देशपांडे ने उनके लिए सुलभ शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था करके उनको भारत की सनातन संस्कृति से वापस जोड़ा. 1971 में जब राजाओं के प्रिवी पर्स खत्म करने की बात आई तो जसपुर के राजा ने अपनी 150 एकड़ जमीन वनवासी कल्याण आश्रम को दान कर दी. इतने दिनों से वो काम को तेजी से विस्तार लेते देख रहा था.  

इमरजेंसी में इंदिरा सरकार ने 19 महीने जेल में रखा

अंग्रेजों की फांसी की सजा जरूर माफ हो गई थी, इमरजेंसी के दौरान ये मेहरबानी नहीं हो पाई और उन्हें 19 महीने तक जेल में रहना पड़ा. 1975 में उन्हें गिरफ्तार कर पहले रायगढ़ फिर रायपुर की जेल में रखा गया, जहां वे 19 महीने रहे. तत्कालीन सरकार की दमनकारी नीतियों ने कल्याण आश्रम के कार्यकर्ताओं को जेल में ही नहीं ठूंसा वरन आश्रम की जमीन को भी लैंड सीलिंग एक्ट के तहत सीज कर दिया और संपत्ति को भी काफी नुकसान पहुंचाया. छात्रावास के बच्चों को भी घर भेज दिया गया. लेकिन जितना दबाया उतने ही उभर कर सामने आए. वो और ज्यादा लोकप्रिय हो चुके थे. जनता पार्टी सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने तो 1977 में जसपुर आकर उनका काम भी देखा था, वे बहुत ही प्रभावित हुए, आर्थिक सहायता का प्रस्ताव भी दिया, लेकिन विनम्रता के साथ बालासाहेब ने मना कर दिया.
 
जिस तरह संघ ने 1956 में गुरु गोलवलकर का जन्मदिन आयोजन में बदला था, देशपांडे का भी 71वां जन्मदिन देश भर में मनाकर संगठन के लिए फंड इकटठा किया गया था. देशभर में बालासाहेब के अभिनंदन कार्यक्रम हुए जिसमें उन्हें निधि भेंट की गई जिसका उपयोग भविष्य में आश्रम के विभिन्न प्रकल्पों के संचालन में हुआ. वनवासी प्रतिभा को देश के सामने लाने के लिए बालासाहेब ने एकलव्य खेल प्रकल्प की भी स्थापना की, यहां से जुड़े कई खिलाड़ी देश का नाम रोशन कर रहे हैं.

उनकी इच्छा थी कि उनके बाद इस संगठन की कमान एक आदिवासी ही संभाले, 20 साल से एक आदिवासी कार्यकर्ता उनके साथ साए की तरह हर काम में हनुमान की तरह बिना कुछ कहे या मांगे अनवरत लगा हुआ था. नाम था जगदेव राम उरांव. 1993 में उन्हीं को संगठन की जिम्मेदारी सौंप दी गई.

पिछली कहानी: गोलवलकर और मुखर्जी में हुई वो बातचीत जिसके बाद बना था भारतीय जनसंघ

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