महात्मा गांधी उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में थे,. वहां उनके मुकदमों और आंदोलनों के चलते भारत में भी लोग उन्हें जानने लगे थे. गोपाल कृष्ण गोखले को उन्होंने राजनीतिक गुरु मान लिया था, सो कांग्रेस के बारे में भी उनको उत्सुकता थी. 1901 में भारत आए तो कलकत्ता (अब कोलकाता) में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने जा पहुंचे. गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘माई एक्सपेरीमेंट्स विद ट्रुथ’ में इस अधिवेशन में व्याप्त तमाम अव्यवस्थाओं, गंदगी, अनुशासन के अभाव और अपनी निराशा के बारे में जो लिखा है, उसकी कुछ लाइनें पढ़िए.
गांधीजी लिखते हैं, “वहां कांग्रेस के कार्यकर्ता काम को एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे पर सरकाते थे. कोई भी काम किसी को बता दो, वो आगे वाले पर टाल देता था. जो प्रतिनिधि भाग ले रहे थे, वो अपने को स्वयंसेवकों से ऊपर समझते थे, कोई भी काम खुद से नहीं करना चाहते थे. कई कांग्रेस नेता तो अपने कोट के बटन तक बंद करने के लिए अपने सचिव या स्वयंसेवकों को आदेश देते थे.”
गांधीजी कांग्रेस अधिवेशन में जारी छुआछूत के बारे में दिलचस्प जानकारी अपनी आत्मकथा में देते हैं, “कांग्रेस अधिवेशन में छुआछूत साफ तौर पर देखी जा सकती थी. यहां तक कि एक ही अधिवेशन में अलग अलग जातियों की कई रसोई चल रही थीं. दक्षिण के द्रविडों के लिए भी अलग से रसोई थी, रसोई भी क्या चटाइयों को चारों तरफ से इस तरह लटका दिया गया था कि कोई बाहर से उनका खाना पकता तक ना देख सके. अंदर आग और धुआं बुरी तरह भरा हुआ था, लेकिन वो किसी की बुरी नजर अपने खाने पर पड़ने देने को कतई तैयार नहीं थे”.
गांधीजी आगे लिखते हैं, “सबसे ज्यादा मुश्किल काम था, किसी से सफाई करवाना. पूरे मैदान में पानी भरा हुआ था, मैंने स्वयंसेवकों से कहा कि आओ साफ करते हैं, लेकिन सबने ये कहकर मना कर दिया कि य़े हमारा नहीं बल्कि भंगी का काम है. इतना ही नहीं शौचालय काफी कम थे, और उनको साफ करने वाला कोई नहीं था, तो मौका देखकर लोग कमरों के सामने वाले मैदान को ही गंदा कर आते थे…
एक दिन मैंने झाड़ू लेकर खुद ही मैदान के साथ साथ शौचालयों तक की सफाई की, तब कुछ स्वंयसेवक मेरी मदद को आए, लेकिन नेता या प्रतिनिधि कोई नहीं आया…अगर ये बैठक उस गंदगी में दो दिन से ज्यादा चलती तो ये निश्चित था कि वहां बीमारी फैल जाती”.
संघ के शिविर की ये तीन बातें गांधीजी के हृदय को छू गईं.
ठीक 33 साल बाद महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई की डायरी के पन्ने पढ़िए. इसमें उन्होंने वर्धा के संघ के कैम्प में गांधीजी के 25 दिसम्बर 1934 के दौरे को लेकर लिखा है “छुआछूत की गैरमौजदूगी, अनुशासन पूर्ण वातावरण और पूजा के लिए मूर्तियों के ना होने के चलते गांधीजी को संघ के शिविर का वातावरण बहुत ही सकारात्मक लगा”. यानी 2 बड़ी कमियां जो उन्हें कांग्रेस के अपने पहले अधिवेशन में दिखी थीं, छुआछूत और दूसरे अनुशासन की कमी, दोनों ही संघ के शिविर से नदारद थीं. तीसरी बात जो गांधीजी के अच्छी लगी थी, पूजा के लिए मूर्तियों का ना होना, वो ये बताती है कि गांधीजी के मन में संघ की छवि अगर कट्टर हिंदू संगठन की होगी तो वो काफी हद तक बदली होगी.
गांधीजी ने संघ शिविऱ घूमने की इच्छा खुद ही जाहिर की थी
दिलचस्प बात ये भी है कि संघ के शिविर में एक ही घंटे में एक साथ 1500 स्वयंसेवकों का भोजन बन जाता था, वो भी एक ही रसोई में, जो कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने अलग-अलग जाति की रसोई में बनता देखा था. दरअसल सारी कहानी वर्धा से शुरू हुई, जहां गांधीजी का आश्रम था, उससे थोड़ी सी दूर पर वर्धा के संघचालक अप्पा जी जोशी की अगुवाई में संघ का शीतकालीन वर्ग लगा हुआ था. दूर से गांधीजी युवाओं को अनुशासन के साथ मिलिट्री के अंदाज में ड्रिल करते हुए देखकर हैरान हुए.
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नाना पालकर ने ‘हेडगेवार चरित’ और महादेव देसाई ने अपनी डायरी में विस्तार से इसका वर्णन किया है. 22 दिसम्बर को इस वर्ग का औपचारिक उदघाटन हुआ तो घोष कार्यक्रम आदि हुए. गांधीजी को ये सब अच्छा लगा रहा था, उन्होंने जानकारी ली कि किस संगठन का शिविर है. उन्होंने महादेव देसाई से ये वर्ग घूमने की इच्छा जाहिर की. 25 दिसम्बर 1934 की सुबह 6.30 बजे गांधीजी वहां पहुंचे और पूरे डेढ़ घंटे शिविर में रुके. गांधीजी के साथ महादेव देसाई, मीरा बेन और कुछ अन्य सहयोगी भी थे.
गांधीजी की उत्सुकता वहां के अलग अलग विभागों मसलन रसोई, डिस्पेंसरी, स्टोर रूम आदि देखने की तो थी ही, साथ में वे वर्ग में दूरदराज से आए स्वयंसेवकों की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को भी जानना चाहते थे. तभी तो ब्राह्मण, महार और मराठा सभी जातियों के युवाओं को एक साथ देखकर हैरान थे. मन नहीं माना तो उन्होंने कुछ स्वयंसेवकों से पूछा भी कि आपके साथ कोई जातिगत भेदभाव तो यहां नहीं होता है? उनको जवाब मिला कि शाखा या वर्ग में आकर हम जातिभेद भूल गए हैं, हमें अपने साथियों में से कई की जाति पता नहीं है. हम सब भाई हैं और हिंदू हैं.
गांधीजी ने अप्पाजी जोशी से पूछा भी कि मैं कई सालों से इस जाति के भेदभाव को दूर करने में लगा हूं, नहीं कर पाया, आपने कैसे किया ये सब? अप्पाजी ने इसका सारा श्रेय डॉ हेडगेवार को दिया. तब गांधीजी ने हेडगेवार से मिलने की इच्छा जाहिर की, तब तक वो नागपुर से वहां आए नहीं थे, अगले दिन यानी 26 को आने वाले थे. अगले दिन के लिए गांधीजी ने उन्हें अपने आश्रम आने का न्यौता दिया. तभी बिगुल बज गया और ध्वजारोहण का समय था, अप्पाजी जोशी और गांधीजी व उनके सहयोगी भी पहुंचे और भगवा ध्वज को सबने प्रणाम (सैल्यूट) किया.
गांधीजी ने पूछा, ‘कांग्रेस के बैनर तले क्यों नहीं शुरू किया RSS’
अगले दिन अप्पाजी जोशी और भोपटकर के साथ डॉ हेडगेवार गांधीजी के सत्याग्रह आश्रम पहुंचे. यहां 1 घंटे तक दोनों ने चर्चा की और ये बड़ी दिलचस्प चर्चा थी. गांधीजी ने पूछा, जब आप कांग्रेस जैसी इतनी लोकप्रिय पार्टी के साथ जुडे थे, फिर संघ जैसे अनुशासित संगठन को उसके बैनर तले क्यों नहीं शुरू किया? हेडगेवार ने जवाब दिया कि डॉ परांजपे के साथ मिलकर कोशिश तो की थी, लेकिन सफल नहीं हुए. वैसे संघ का पहला गणवेश तो कांग्रेस अधिवेशन के उसी संगठन से लिया गया था. गांधीजी ने पूछा, क्या पैसे की दिक्कत आ गई? हेडगेवार ने जवाब दिया, पैसे की नहीं, कमी तो बिना शर्त समर्पण की थी, कांग्रेस को राजनीति उद्देश्य के लिए बनाया गया है, उसके कार्यकर्ताओं को मंच सजाने, स्टेज बनाने आदि की ट्रेनिंग दी गई है. लेकिन ना तो शारीरिक व मानसिक विकास का कोई कार्यक्रम है और ना राष्ट्र के प्रति निस्वार्थ भाव के काम करने का भाव विकसित करने का.
गांधी ने हेडगेवार से पूछा परिवार का पेट कैसे पालते हैं?
गांधीजी ने ये भी पूछा कि क्या संघ जमना लाल बजाज जैसे धनी लोगों से पैसे की मदद भी लेता है? तब ड़ॉक्टर हेडगेवार ने उन्हें विस्तार से गुरुदक्षिणा के बारे में बताया कि कैसे स्वयंसेवकों के धन से ही संघ चलता है, बाहर से मदद नहीं लेते. गांधीजी को इस बात की भी उत्सुकता थी कि इतना समय हेडगेवार संघ को देते हैं तो अपनी मेडिकल प्रेक्टिस के लिए समय कैसे निकालते हैं?
हेडगेवार ने मना किया कि वो मेडिकल प्रेक्टिस नहीं कर रहे हैं. तब गांधीजी को हैरानी हुई कि फिर कैसे वो अपने परिवार का पालन पोषण कर पाते हैं. जब डॉ हेडगेवार ने बताया कि उन्होंने विवाह ही नहीं किया है, और आजीवन अविवाहित ही रहेंगे तो गांधीजी हैरान रह गए. उसके बाद लिखी अपनी डायरी में महादेव देसाई ने लिखा है कि गांधीजी ने उनसे कहा था कि “मैं आपके शिविर में अनुशासन को देखकर और छुआछूत ना पाकर बहुत आश्चर्यचकित था. ये हिंदू समाज की बड़ी सेवा है.”
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