Tuesday, June 24, 2025
HomeBreaking Newsअशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं…

अशोक, तुम्हारे हत्यारे हम हैं…

अशोक से खरीदा गया वो आखिरी पेन आज हाथ में है, लेकिन उससे कुछ लिखने का मन नहीं है। अशोक… जिसे कोई शोक न हो। यही सोच कर नामकरण किया होगा उसके माता-पिता ने। अशोक की किस्मत भी सम्राट अशोक जैसी थी, पूरी न सही कुछ तो थी ही। सम्राट अशोक को कलिंग युद्ध के बाद शोक हुआ और इस अशोक को एफडीआई एवं मॉल संस्कृति आने के बाद।


आज अशोक रह-रह कर याद आ रहा है। नजरें तो उसे पिछले आठ-दस दिन से तलाश रही थी, लेकिन उसका ठीहा या कहें दुकान बंद थी। सोचा हमेशा की तरह कोई काम होगा या हमारी दिनचर्या में बदलाव के कारण उस खास समय दुकान बंद मिलती है। हकीकत कुछ और थी। ऐसी कि दिल में नश्तर की तरह चुभ गई। ये नश्तर मोहल्ले के हर घर में कुछ मिनट का सन्नाटा खींच गया। जवान होती दो बेटियों का पिता अशोक, जो न जाने कितने दर्द सहन कर रहा था, दिल का दौरा नहीं झेल पाया। अशोक गया नहीं उसकी हत्या हुई है और हत्यारे हैं हम..! जी हां हम। अशोक मरा नहीं उसे मारा गया है। उसे दिल का दौरा पड़ा नहीं। उसके दिल को इतना कमजोर कर दिया गया कि वो उसका शोक नहीं सह सका। भगवान शंकर की तरह अकेले हलाहल पी रहा अशोक चला गया… बिना किसी प्रतिवाद और बिना कोई शोर-शराबे।


25 साल से जाने पहचाने अशोक की कहानी कुछ यूं है। जब हम उस नई कॉलोनी में निवास करने पहुंचे थे, तब घर से थोड़े फासले पर एक गुमटीनुमा दुकान में अशोक ने अपना शंकर किराना स्टोर खोला था। वक्त और जरुरत के मुताबिक उसमें प्रॉविजन स्टोर, फोटोकॉपी और आइसक्रीम पार्लर भी जुड़ता गया। कारोबार बढ़ने के साथ छोटी सी छह-बाई-छह फीट की तिकोनी दुकान एक से दो हुईं और फिर अचानक दुकान में सामान कम और खालीपन ज्यादा हो गया।


जिस शंकर की दुकान (अशोक का मोहल्ले में प्रचिलित नाम) से घर का पूरा राशन आता था, कॉलोनी आबाद होने पर उससे धीरे-धीरे कब किनारा कर लिया गया, पता ही नहीं चला। वजह थी वॉलमार्ट का बेस्ट प्राइज, रिलायंस, बिग बाजार और ऑनडोर जैसे सस्ता सामान बेचने वाले बड़े स्टोर्स का मकड़जाल। इसका खुलासा भी एक शाम अशोक से बात करने पर ही हुआ। कभी रोज सुबह और शाम शंकर की दुकान पर कुछ न कुछ खरीदने की आदत इन मॉल्स ने खत्म कर दी। आलम यह हो गया कि घर से डिमांड आई अनिक का घी ले आओ… दुकान पर पूछा तो अशोक ने कहा- अमूल और सांची वाला घी है, लेकिन चाहिए अनिक था सो आगे बढ़ गए। कुछ इसीतरह हम सब लोगों ने मिलकर मोहल्ले की दुकान को उजाड़ कर दिया।


दुकान में खालीपन बढ़ा तो फोटोकॉपी और आइसक्रीम जैसे टोटकों के बाद अशोक की पत्नी ने एक हिस्से में लेडीज टेलरिंग का काम शुरु कर लिया कि कुछ तो आमदनी में इजाफा हो। पाप अशोक ने भी किया था। वक्त के साथ बदलते ग्राहकों की मानसिकता न भांप पाने का पाप! कभी इसी दुकान के दम पर उसने कॉलोनी में मकान खरीदा था। वक्त ने करवट ली तो उसे बेच कर दूर सस्ता मकान लेने किसी बिल्डर के फेर में पड़ गया। नया मकान सालों देरी से मिला और रकम जाम होती गई। पुराने मकान का मुनाफा परिवार की जरुरतों और दुकान को संभालने में लग गया। चिंता और अवसाद से उपजता है मधुमेह। सो अशोक भी डायबिटीज और हाई ब्लडप्रेशर की बीमारी का शिकार हो गया। उसका चेहरा चुगली करता था कि शारीरिक बीमारी से ज्यादा धंधा मंदा होने और उधारी चुकाने की बीमारी बढ़ चुकी है, लेकिन शंकर की तरह वो अकेले विषपान करता रहा… कभी इनका जिक्र नहीं किया।


कभी बातचीत में उसे खोलने की कोशिश भी की तो सिर्फ इतना ही कहा कि अब लोग थोक के भाव घरेलू सामान लेने लगे हैं इसलिए दुकान में सामान कम कर दिया। जवानी जिस काम में लगा दी उसे छोड़कर दूसरा काम करना अब संभव भी नहीं था इसलिए ग्राहकों को लुभाने के लिए प्रयोगों का दौर चलता रहा। जिस शंकर की दुकान पर मोहल्ले की महिलाएं कभी रात के अंधेरे में भी सामान लेने सहज चली जाती थीं, अब दिन में भी कोई नहीं जाता। वो अशोक ही था, जिसने महिलाओं को देखते हुए सिगरेट, गुटखा जैसी चीजों को बेचना बंद कर दिया था। वक्त बदला तो चार लोगों को दुकान पर खड़ा करने का सहारा यही चीजें बनीं।


कई बार सोचा, घर में बात भी की, लेकिन जमी नहीं कि कम से कम छोटा सामान अशोक की दुकान से ही लिया जाए। कोरोना की महामारी ने जरुर कुछ दिन की रौनक लौटाई, जब लॉकडाउन में बाजार बंद थे। कुछ दिन बाद ही बिग बाजार जैसों की होम डिलेवरी ने फिर शंकर की उम्मीदों पर तुषारापात कर दिया… और अशोक ने अचानक बिना बताए अलविदा कह दिया।


अशोक तब गया जब दिल्ली में “बाबा का ढाबा” बेजार होने का वीडियो देख सैकड़ों लोग ढाबा चलाने वाले बुजुर्ग कांताप्रसाद की सहायता को जुट गए और महज 12 घंटे में ढाई लाख रुपयों की आर्थिक मदद खड़ी हो गई। हमारा अशोक वैसा खुशकिस्मत नहीं था। वो मारा गया हमारे कारण। वो मारा गया एफडीआई के तहत आए वॉलमार्ट के कारण। उसकी जान गई बिग बाजार से सस्ता माल खरीदने की हमारी लोलुपता से। सवाल गूंज रहा है कि लोकल फॉर वोकल के नारे के बीच बड़े किराना कारोबारियों की सस्ती दुकान ने गली-मोहल्लों के और कितने अशोक को हमसे दूर किया? गुनहगार वे नहीं जो लोकल की बात कर कैपिटलाइजेशन को तरजीह देते हैं। गुनहगार हैं हम लोग, जो मॉल में तो तिगुने दाम पर एक शर्ट पर एक मुफ्त शर्ट बिना मोल-भाव खरीद लेते हैं, लेकिन सब्जी वाले से एक किलो आलू का भी भाव-ताव करते हैं।

ऐसे तमाम अशोक को श्रद्धांजलि के साथ यह उम्मीद कि फूड ब्लॉगर गौरव वासन की तरह कोई तो सामने आए और गली-मोहल्ले के इन दुकानदारों की तकलीफ उजागर करे। कोई तो वसुंधरा तन्खा शर्मा उस दर्द को ट्वीट करे और लक्स साबुन की बट्टी अथवा गोल मिठाई पर सिर्फ 10-15 पैसे के मुनाफे पर परचून और किराना दुकान चलाने वाले, गली के मोची और दर्जी की किस्मत बाबा के ढाबा की तरह फिर चमकने लगे।

प्रभु पटैरिया

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनके ब्लॉग ताजा मसाला से साभार

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

RECENT COMMENTS

casino online slot depo 10k bonus new member slot bet 100 slot jepang
slot depo 10k slot gacor slot depo 10k slot bet 100