Friday, May 9, 2025
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प्राचीन मंदिरों के आंगन में बिखरा कलाओं का आनंद, सुधिजनों ने किए भारतीय संस्कृति और भक्ति परम्परा के दर्शन

खजुराहो। हमारी संस्कृति में नृत्य मात्र एक नयनाभिराम प्रस्तुतीकरण ना होकर कलाकार के गहन चिंतन को साकार करने वाला एक सार्थक प्रयास है। भारत में कला का स्वरूप परंपरानिष्ठ संस्कार के समान है जो कठोर साधना से पल्लवित हो कलाकार के स्व की अभिव्यक्ति करने के साथ समकालीन सांस्कृतिक परिदृश्य का भी वर्णन करता है। खजुराहो के प्राचीन मंदिरों के आंगन में इन दिनों कलाओं का आनंद बिखरा हुआ है। देश के सुप्रसिद्ध नृत्य कलाकार प्रतिदिन अपनी गुरु परम्परा, साधना और कल्पना को देहगति, भाव भंगिमाओं और मुद्राओं में रेखांकित कर रहे हैं। मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग के लिए उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत एवं कला अकादमी द्वारा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, पर्यटन विभाग एवं जिला प्रशासन छतरपुर के सहयोग से आयोजित 51वें खजुराहो नृत्य समारोह के छठवें दिन भी नृत्य और कलाओं की उत्कृष्टता से सुधिजन रूबरू हुए। मंगलवार का दिन भरतनाट्यम, सत्रीय और मणिपुरी के नाम रहा।

छठवें दिन की पहली प्रस्तुति मध्यप्रदेश की कामना नायक एवं साथियों की रही। उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य के माध्यम से दशावतार प्रस्तुति दी। दशावतार नृत्य जयदेव की गीत गोविन्द नामक ग्रंथ से रचित है। जयदेव जी ने हरि के दशावतार का वर्णन गीत गोविंद में संस्कृत भाषा में किया है। जयदेव ने दशावतार में श्री कृष्ण का वर्णन नहीं किया है, क्योंकि वह कृष्ण को परम अवतार वर्णित करते हैं। क्योंकि कृष्ण ही एक ऐसा रूप है जिन्होंने कहा है कि मैं स्वयं ईश्वर हूँ। इस नृत्य द्वारा नृत्य साधिकाओं ने अपने हस्तो सें दशावतार की कहानियाँ एवं दशावतार हस्त दर्शाए। जयदेव जी ने श्री कृष्ण को सर्वश्रेष्ठ कहा है। वे कहते हैं हे केव तुम मीन हो, कच्छ हो, शुकर हो, नरहरि हो, तुम वामन हो, भृगुपति यानि परशूराम हो, तुम राम हो, हलधर (बलराम) हो; तुम बुद्ध हो और तुम कल्कि हो। इसी कारण वह कृष्ण को अवतारों की आकृति मानते है। इसलिए वह बार-बार वर्णन करते हैं केश्व जय जगदीश हरे। इस नृत्य प्रस्तुति में वीर रस, भक्ति रस, करुण रस एवं रौद्र रस के अंश दिखाई दिए। अंत में उन्होंने राग गंभीर नटई और ताल खंड त्रिपुट में मल्लारी की प्रस्तुति दी। अगली प्रस्तुति सत्रीया नृत्य की थी। जिसे प्रस्तुत किया जतिन दास एवं साथी, असम के कलाकारों ने। इस प्रस्तुति में सत्रीया नृत्य की समृद्ध परंपरा को सुधिजनों ने न सिर्फ देखा बल्कि अनुभव भी किया। असम की विरासत और भक्ति परंपरा का एक अभिन्न अंग, जिसमें सौंदर्य और लय का संगम भी दिखता है।

प्रस्तुति की शुरुआत ‘सूत्रधारी नृत्य’ से हुई, जो सत्रीया नृत्य की पुरुष नृत्य शैली का एक विशेष भाग है। यह नृत्य ‘अंकीय नाटक’ के प्रारंभ में किया जाता है। नृत्य साधकों ने इस नृत्य में अभिनय और शुद्ध नृत्य दोनों का समावेश किया। इस प्रस्तुति में भगवान श्री कृष्ण की वंदना दिखाई। इसके बाद ‘झूमुरा नृत्य’ प्रस्तुत किया गया, जो सत्रीया नृत्य की पुरुष नृत्य शैली का एक अन्य महत्वपूर्ण भाग है। यह नृत्य तीन भागों में विभाजित था रामदानी, गीतार नाच और मेला नाच। इस नृत्य में ठुकोनी ताल, सुत ताल, धरमज्योति ताल और पोरीताल ताल का प्रयोग किया गया। अगली प्रस्तुति नृत्य नाटिका – ‘प्रिया माधव’ की थी। इसकी शुरुआत गूपी नृत्य के शुद्ध नृत्य अंश से होती है, जिसे सुत ताल में प्रस्तुत किया गया। यह नृत्य सत्रीया नृत्य की महिला नृत्य शैली का हिस्सा है। इसके पश्चात एक आहल्या अभिनय का प्रदर्शन किया गया, जिसमें नाट्यशास्त्र के नायक और नायिकाओं को दर्शाया गया। इस प्रस्तुति में धीरोधात्त नायक के रूप में भगवान श्रीकृष्ण, धीरप्रशांत नायक के रूप में नारद मुनि और खंडिता नायिका के रूप में रानी सत्यभामा की झलक दिखी। यह प्रस्तुति महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव द्वारा रचित ‘अंकीय नाटक’ – ‘पारिजात हरण’ से ली गई थी। अंत में ‘तुमि हरी रसरा सागर’ की प्रस्तुति हुई। एक ऐसी नृत्य रचना जो नवरसों पर आधारित थी। इसमें नाट्यशास्त्र के अष्ट रस – श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत तथा साहित्य दर्पण का शांत रस प्रस्तुत किया गया।छठवें दिन की अंतिम प्रस्तुति मणिपुरी नर्तनालय द्वारा ‘पूर्णाय’ की प्रस्तुति मणिपुरी नृत्य के माध्यम से दी गई।

पद्मश्री गुरु कलावती देवी और बिम्बावती देवी के निर्देशन में यह प्रस्तुति दी गई। इसकी शुरुआत जयदेव हरे से हुई। पूर्वोत्तर की आध्यात्मिक चेतना को सांस्कृतिक स्वरूप में बड़े ही आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया गया। आषाढ़ मास में मणिपुर में कांग चिंगबा या रथयात्रा बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। वहां के लोग इस पर्व को गीतों और नृत्यों के माध्यम से और भी विशेष बनाते हैं। यह नृत्य मणिपुर की रथयात्रा से जुड़े पारंपरिक तत्वों को समेटे हुए था। इसमें कवि जयदेव के दशावतार और अन्य मणिपुरी भक्तिगीतों का संकलन किया गया था, जिनके माध्यम से भक्त भगवान कृष्ण की वंदना करते हैं। तत्पश्चात शिव वंदना की गई। भगवान शिव की स्तुति पर आधारित यह नृत्य शिव पंचाक्षरम् के एक अंश से प्रेरित था। यह नृत्य भगवान शिव की शक्ति और उनकी महिमा को समर्पित रहा। अगली प्रस्तुति नमः कृष्णाय थी। स्वयं श्रीभगवान ने कहा था कि जब-जब अधर्म की वृद्धि होगी और धर्म संकट में पड़ेगा, तब-तब वे अवतरित होंगे। इस नृत्य में कृष्ण के विभिन्न रूपों की झलक प्रस्तुत की गई। जिसमें वे राक्षसी पूतना का वध करते हैं, अर्जुन के सारथी बनकर उन्हें धर्मयुद्ध का मार्ग दिखाते हैं और समय-समय पर पृथ्वी की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं। अंतिम प्रस्तुति पूर्ण पुरुषोत्तम रही। पूर्ण पुरुषोत्तम नृत्य भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार को समर्पित थी, जो अधर्म का अंत कर धर्म की स्थापना करते हैं।*नृत्य के प्रति गहरी आस्था कह रही भविष्य की कहानी* खजुराहो बाल नृत्य महोत्सव में छठवें दिन भी बाल नृत्य कलाकारों ने अपनी उत्कृष्ट प्रस्तुतियां दीं।

अल्प आयु में ही नृत्य के प्रति गहरी आस्था और समर्पण इन बाल कलाकारों के भविष्य की कहानी कह रहा था। पहली प्रस्तुति अनुकृति मिरदवाल के कथक की रही। अपनी कथक नृत्य की यात्रा की शुरुआत अपनी गुरु, दमयंती भाटिया मिरदवाल, के मार्गदर्शन में मात्र 8 वर्ष की आयु में प्रारंभ करने वाली अनुकृति ने “रास ताल” की प्रस्तुति दी। 13 मात्रा के इस अप्रचलित ताल की शिक्षा उन्होंने अपने दादा गुरु, पद्म श्री डॉ. पुरु दाधीच से प्राप्त की है। इसके अलावा उन्होंने द्रुत तीन ताल भी प्रस्तुत किया और अंत में “शिव ध्रुपद” शंकर अति प्रचंड, जो कि पंडित राजेन्द्र गंगानी द्वारा रचित है, का प्रदर्शन किया। उनके साथ संगत करने वाले कलाकार तबले पर मृणाल नागर, गायन एवं हारमोनियम पर मयंक स्वर्णकार, सारंगी पर आबिद हुसैन, और पड़न्त पर दमयंती भाटिया मिरदवाल साथ थे। इसके बाद प्रगति झा ने कथक नृत्य से उपस्थित सुधिजनों को नृत्य के सौंदर्य की अनुभूति कराई। प्रगति ने शुद्ध कथक की प्रस्तुति दी, जिसमें पारंपरिक पढ़ंत, विलंबित एवं मध्य लय की बंदिशें तथा एक भावपूर्ण ठुमरी शामिल थी। उनकी प्रस्तुति उनकी तकनीकी दक्षता, लयकारी, भाव-भंगिमा और गहरी अभिव्यक्ति को दर्शा रही थी

भारत में चौथी शताब्दी से पूर्व मंदिर अस्तित्व में आ चुके थे : श्री शिवकांत बाजपेई* कलाविदों और कलाकारों के मध्य संवाद के लोकप्रिय सत्र “कलावार्ता” में पांचवें दिन जबलपुर से पधारे पुरातत्वविद श्री शिवकांत बाजपेई ने खजुराहो मंदिर सहस्त्राब्दी पूर्ण होने एवं ऐतिहासिक यात्रा विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि खजुराहो के मंदिरों का निर्माण 925 ईस्वी से 1200 ईस्वी तक माना जाता है। जिन्हें चंदेल वंशिया शासकों द्वारा बनवाया गया था। जिसमें राजा विद्याधर प्रमुख थे। उन्होंने बताया कि ये मंदिर नागर शैली में बनवाए गए थे। श्री शिवकांत बाजपेई ने संधार और निरंधार शैली में अंतर को भी स्पष्ट किया। संधार शैली में बने मंदिरों में एक चौकोर गर्भगृह होता है जो प्रदक्षिणा के लिए स्तंभों की एक गैलरी से घिरा होता है। इस प्रकार, संधार मंदिरों में एक प्रदक्षिणापथ होता है। निरंधर शैली में बने मंदिरों में प्रदक्षिणापथ नहीं होते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि भारतीय इतिहास में भारत में मंदिरों का अस्तित्व चौथी शताब्दी से माना गया है, जबकि यह सत्य नहीं है। विदिशा में मिले अवशेषों के आधार पर यह बात कही जा सकती है कि भारत में मंदिर चौथी शताब्दी से पूर्व अस्तित्व में आ चुके थे। इसके बाद वरिष्ठ कथक नृत्यांगना सुश्री रजनी राव ने भारतीय नृत्य और मंदिरों के बीच संबंध पर व्याख्यान दिया।

हम भारत के सांस्कृतिक योद्धा हैं, हमारे कंधे पर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है : डॉ.पद्मा सुब्रह्मण्यम* वरिष्ठ नृत्यांगना एवं पद्मविभूषण डॉ. पद्मा सुब्रह्मण्यम के जीवन और कला अवदान पर केंद्रित “प्रणाम” के अंतर्गत श्री पियाल भट्टाचार्य ने भारतीय नृत्य परिदृश्य पर डॉ.पद्मा सुब्रह्मण्यम का प्रभाव और डॉ.राजश्री वासुदेवन ने डॉ.पद्मा की दैव भक्ति और देशभक्ति पर व्याख्यान दिया। इसके पूर्व डॉ.पद्मा सुब्रह्मण्यम ने कहा कि हम भारत के सांस्कृतिक योद्धा हैं। हमारे कंधों पर बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। हमें अनुशासित होकर भारतीय कलाओं के लिए काम करना पड़ेगा और सम्मान भी बढ़ाना होगा। भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी युवा कलाकारों की है।

श्री पियाल भट्टाचार्य ने कहा कि मैंने डॉ.पद्मा सुब्रह्मण्यम की वजह से ही नाट्यशास्त्र को जाना और समझा। मेरे गुरु ने कहा कि तुम जाओ और पद्मा जी के काम को देखो। तब मैंने पद्मा जी के नाट्यशास्त्र और कर्णास पर किए कार्यों को जाना और उन पर अध्ययन किया। मैंने नाट्यशास्त्र पर इतना अध्ययन किया कि एक नई नृत्य शैली की रचना की। इसके बाद डॉ.पद्मा सुब्रह्मण्यम की वरिष्ठ शिष्या डॉ.राजश्री वासुदेवन ने कहा कि पद्मा जी के कर्णास और नाट्यशास्त्र पर किए कार्यों से देश के अनेक कलाकार प्रभावित हुए और उन्हें नई दिशा मिली। न केवल देश बल्कि, विदेशों की संस्कृति और साहित्य को लेकर भी पद्मा जी ने कई कोरियोग्राफिक प्रस्तुतियां तैयार की।——–

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