विश्वविख्यात गामा पहलवान का रीवा से रहा है विशेष रिश्ता, रीवा से कुश्ती के दांवपेच सीखकर लंदन में की थी फतह हासिल, गामा पहलवान का मुगदर आज भी है मौजूद*गामा पहलवान यह नाम कुश्ती के क्षेत्र में जब भी लिया जाता है हमेशा अदब और सम्मान के साथ लिया जाता है। क्योंकि गामा पहलवान कुश्ती की दुनिया की वह शख्सियत थे जिनका आज भी कोई सानी नहीं है। वो एक ऐसे पहलवान थे जिन्होंने कभी कोई कुश्ती नही हारी, लेकिन शायद ही ऐसे बहुत ही कम लोग होंगे जो ये जानते होंगे की गामा पहलवान का मध्य प्रदेश के रीवा से विशेष नाता रहा था। उन्होंने रीवा अखाड़ा घाट में ही कुश्ती के दांव पेंच सीखकर लंदन में अपना परचम लहराया था और रीवा को एक पहचान दी थी।गामा पहलवान की ख्याति दिन प्रति दिन बढ़ने लगी थी रुस्तमे हिन्द होने के बाद तो पूरी हिन्दुस्तानी रियासतों में उनका नाम हो चुका था। गामा पहलवान के मामा रुस्तमे हिन्द मीरा बख्श पहले ही रीवा दरबार में शाही पहलवान थे वो अपने भांजे गामा को रीवा बुला लाए।
रीवा नरेश महाराजा वेंकट रमण सिंह उनसे मिलकर बड़ा खुश हुए, उनके आगमन पर स्वागत किया। उनको फोर्ट रोड स्थित एक पुराने भवन जो सर्राफा मार्केट के बीच में था, उसमें ठहराया गया, बाद में उसी भवन में को-आपरेटिव बैंक लगने लगा था। इसके ऊपरी तल में गामा का निवास था, वर्तमान में उक्त भवन को ध्वस्त कर एक बैंक भवन का निर्माण कराया गया है।मीरा बक्स एवं गामा के पहले महाराजा वेंकटरमण सिंह के पास जोधपुर से आये हुऐ सरदार सिंह नाम के एक पहलवान थे। इनके अभ्यास कुश्ती के लिए बड़ी दरगाह के निकट अमहिया मोहल्ला में अखाड़ा खोदवाया गया था वहीं पर सरदार सिंह अपने शिष्यों को दांव पेंच सिखाते थे। गामा पहलवान उसी अखाड़े में कुश्ती का दांव पेंच शिष्यों को बताने लगे तथा स्वयं बहुत कड़ा रियाज करने लगे। रीवा नरेश महाराजा वेंकट रमण सिंह ने गामा की रोज की खुराक में 6 माह के एक बकरे का मांस, 4 बाल्टी दूध, 1 टोकरी फल 2 किलो घी, पिस्ता बादाम 750 ग्राम लगा दिया था। गामा अखाड़े में रखी 98 किलो बजन की पत्थर की चकरी में जंजीर बांध कर अपने गले में जंजीर फंसाकर सैकड़ों बैठक लगाते थे। इसके अलावा 5 हजार बार दण्ड 5 हजार बैठक लगाते थे दण्ड के दौरान जमीन उनके पसीने से तर हो जाती थी। उसी दौरान गामा के शिष्य बाल्टी में रखे दूध को मग से पीने के लिए देते रहते थे।वर्ष 1910 में इंग्लैंड के लन्दन शहर में कुश्ती की विश्व चैम्पियनशिप मुकाबला होना था, जिसके लिए हिन्दुस्तान से गामा पहलवान को चयनित किया गया, उस वक्त गामा रीवा महाराजा के दरबार में थे। उधर ब्रिटिश भारतीय हुकुमत ने आने-जाने व उसका अन्य खर्च उठाने से इनकार कर दिया, ऐसा लगने लगा कि गामा उस मुकाबले में भाग लेने नहीं जा पायेंगे।
जब यह बात रीवा नरेश महाराजा वेंकटरमण सिंह जूदेव को मालूम हुई, तो वो आगे आए तथा भारत के गर्वनर जनरल से सिफारिश की, तथा आर्थिक सहयोग प्रदान किया तब गामा स्पर्धा में भाग लेने लन्दन भेजे गए जहां पर उन्होंने अपना परचम लहराते हुए जीत हासिल की।गामा पहलवान रीवा में रहते हुए 10-12 साल तक के बच्चों को भी कुश्ती सिखाते थे। गामा के रीवा आगमन पर उस्ताद मुमताज खाँ बिछिया रीवा ने अपने द्वारा तैयार किए गए शागिर्द हरिहर प्रसाद पाण्डेय की बेहतरी के लिए 1934 में उन्हें गामा के सुपुर्द कर दिया था। उनके प्रिय शार्गिदों में पं. राम भाऊ शुक्ला, हरिहर प्रसाद पाण्डे, हनीफ खाँ थे। इनमें रामभाऊ शुक्ला रीवा स्टेट चैम्पियन, हरिहर पाण्डेय रीवा स्टेट चैम्पियन के अलावा इलाहाबाद चैम्पियन, बुन्देलखण्ड चैम्पियन थे। जबकि हनीफ खाँ 1935 के युवा वर्ग के रीवा स्टेट चैम्पियन बने थे।
गामा पहलवान के सर्वाधिक निकट हरिहर प्रसाद पाण्डेय थे, गामा ने हरिहर प्रसाद को महाराजा गुलाब सिंह से अपने साथ ले जाने के लिए यह कहते हुए मांगा था कि, हरिहर को मै रुस्तमे हिन्द 1 साल के भीतर बना दूंगा पर महाराजा गुलाब सिंह ने हरिहर प्रसाद को नहीं जाने दिया था। वह रीवा नरेश महाराजा वेंकट रमण सिंह के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे, तथा रीवा में अपने शिष्यों व दोस्तों का हाल ख़त के द्वारा हमेशा मालूम करते रहे।गामा पहलवान सन् 1935-36 में आखरी बार रीवा आए उनकी अगवानी करने खुद महाराजा गुलाब सिंह चंदुआ नाले तक गए, तथा उन्हें राज अतिथि बनाकर रीवा में रखा। गामा के रीवा आने से उनके शिष्य तथा उनके मित्र प्रफुल्लित हो गए उन्होंने सभी से मुलाकात की।
रीवा नरेश महाराजा वेंकटरमण सिंह ने उन्हें 30 किलो वजन के चांदी का भारी भरकम गदा देकर सम्मानित किया था, गामा जहां भी जाते वो गदा लेकर चलते थे। प्रतापगढ़ के इलाकेदार लाल कप्तान प्रताप सिंह उनके निकट मित्रों में से थे, गामा जब रीवा में कुछ महीने रुकने के बाद यहां से पटियाला जाने लगे तो उन्होंने अपने दो मुग्दर लाल कमान प्रताप सिंह को भेंट कर दिया था। उस मुग्दर में उर्दू भाषा में गामा का नाम व फारसी में शेर लिखा हुआ था, उसकी परत देखने में चांदी सी प्रतीत होती है। वह मुग्दर कप्तान प्रताप सिंह के परपोते अशोक सिंह के पास आज भी मौजूद है।