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Tuesday, October 28, 2025
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संघ के 100 साल: चीन से युद्ध और गुरु गोलवलकर की ‘सेवा दीपावली’, आज तक भूले नहीं लोग – Sangh 100 years China war Guru Golwalkar Seva Diwali unforgettable ntc

दीपावली या दिवाली पर्व भगवान राम की अयोध्या वापसी से जुड़ा है और जिस दिन संघ की स्थापना हुई, वो विजयादशमी का पर्व रावण पर उनकी जीत से है. ऐसे में दिवाली पर्व हमेशा से ही संघ के लिए महत्वपूर्ण रहा है. संघ और सहयोगी संगठन सालों से इस दिन गरीब बस्तियों में दीप जलाने, पटाखे-मिठाई बांटने, भारत माता के नक्शे पर दीप प्रज्वलन करने जैसे कार्यक्रम करते आ रहे हैं. लेकिन 1963 की दिवाली कुछ अलग थी. देश में खुशी के उल्लास के बजाय हार की टीस, मौतों का मातम पसरा हुआ था. ऐसे में नागपुर के संघ मुख्यालय में तत्कालीन संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर द्वारा संघ के स्वयंसेवकों के लिए दिवाली पर एक आव्हान आज भी याद किया जाता है.

यूं तो चीन ने 1962 में जब भारत पर हमला किया था, तब देश दिवाली की तैयारियों में ही जुटा हुआ था. लेकिन तब इस तरह से युद्ध नहीं होता था कि हमला होते ही सबको पता चल गया. लोग रेडियो पर या अगले दिन के अखबार पर निर्भर करते थे. कई दिन लग गए पूरे देश को जानने और युद्ध की विभीषिका समझने में. वैसे भी जमीनी हमला था, सेनाएं धीरे धीरे ही आगे बढ़ती हैं, मिसाइल होती नहीं थीं. 20 अक्तूबर को चीन ने ये हमला किया था और 28 अक्तूबर को दिवाली थी. 

लेकिन संघ के मुख्यालय में ये खबर बड़ी चिंता लेकर आई थी. दिन रात बैठकों का दौर चलने के बाद का फैसला किताब ‘The RSS: A View to the Inside by Andersen & Damle’ से मिलता है कि कैसे 2 दिन बाद यानी 22 अक्तूबर को ही संघ के 10,392 स्वयंसेवकों के एक समूह का गठन किया गया और उनको आसाम, लद्दाख और नेफा (आज का अरुणाचल प्रदेश) में तैनात करने के लिए कहा गया. इस निर्णय पर खुद गुरु गोलवलकर के हस्ताक्षर थे. 

‘घायल सैनिकों का इलाज…’

28 अक्तूबर के ऑर्गनाइजर के अंक में विस्तार से इस खबर को छापा गया. इस खबर के साथ-साथ स्वयंसेवकों के ट्रेन से रवाना होने का फोटो भी छापा गया था. साथ ही सैनिकों के लिए रसद यानी खाना, दवाएं आदि भी भेजी गईं. एक अनुमान के मुताबिक, 500 से ज्यादा ट्रक लोड कर सीमावर्ती क्षेत्रों में भेजे गए थे. श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड 3 में गुरु गोलवलकर का एक बयान मिलता है, “चीन का आक्रमण हिंदू राष्ट्र की परीक्षा है, स्वयंसेवक सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ेंगे”,  ये बयान उन्होंने नागपुर में 23 अक्तूबर को दिया था. 

नेफा में संघ ने 50 से ज्यादा अस्थाई अस्पताल बनाए थे, जिनमें 2000 से भी ज्यादा घायल सैनिकों का इलाज संघ के स्वयंसेवकों, जिनमें से कई डॉक्टर्स भी थे, ने किया था. तिब्बती और स्थानीय विस्थापितों के लिए दिल्ली और कलकत्ता में संघ के स्वयंसेवकों ने 20 शिविर लगाए थे, जिनके जरिए 15000 से भी ज्यादा लोगों को भोजन/कपड़े जैसी तमाम चीजें बांटी गई थी. 10 नवंबर 1962 के ऑर्गनाइजर के अंक से जानकारी मिलती है कि देश भर में लगने वाली संघ की शाखाओं में सैनिक भर्ती का प्रचार भी किया गया.

युद्ध पर चीन ने 1 महीने बाद खुद ही विराम लगा दिया. अब बारी नुकसान के आकलन की थी. आरोप प्रत्यारोपों के बजाय संघ ने शहीद सैनिकों के परिवारों की सहायता का कार्यक्रम चलाया और 1300 शहीद परिवारों के लिए धन संग्रह करके उन दिनों 50 लाख रुपए की धनराशि उन तक पहुंचाई गई. इसके अलावा उनके परिवार के सदस्यों को नौकरियों के लिए प्रशिक्षण दिया गया, दावा किया जाता है कि प्रशिक्षण लेने वाली ऐसी 80 फीसदी विधवाओं को रोजगार भी मिला. गुरु गोलवलकर का एक बयान 26 नवंबर को भी ‘बंच ऑफ थॉट्स’ से मिलता है, “1962 की हार ने हिंदू समाज की एकता जगाई, अब सेवा से राष्ट्रनिर्माण करें.”  

यह भी पढ़ें: संघ के 100 साल: प्लेग में हेडगेवार ने खोए थे माता-पिता और भाई, तेलंगाना से नागपुर आकर बसा था परिवार

इसके बाद एक और कार्यक्रम संघ ने चलाया, जिसे नाम दिया गया, ‘सीमा रक्षा अभियान’. युद्ध के बाद बुरा हाल था, सीमाएं खुली पड़ी थीं. आस पास के देशों के कबीले के लोग सीमावर्ती गांवों में आकर लूट मचा रहे थे, डकैती डाल रहे थे, किसी को अब सेना का खौफ भी नहीं था. ऐसे में इस कार्यक्रम के जरिए संघ ने  5,000 स्वयंसेवक बॉर्डर पर डकैती रोकने के लिए भेजे, जिससे वो सेना की पर्याप्त तैनाती तक वहां गश्त लगाते रहें. आसाम में 10 हथियार प्रशिक्षण शिविर भी लगाए गए, लाइसेंसी हथियार वाले स्वयंसेवकों व आर्मी के रिटायर्ड अधिकारियों, सैनिकों की सहायता ली गई.

संघ की प्रेरणा से दिसंबर में राष्ट्रीय एकता यात्रा भी निकाली. युद्ध के दौरान रेडियो पर नेहरूजी के बयान, “My heart goes out to Assam people” से वहां के लोग काफी नाराज थे, ऐसे में क्षेत्रीय भावनाएं भी भड़कने लगी थीं. सीमावर्ती राज्यों रहने वाले लोगों में अलगाव की भावना उभरने लगी थी कि उनकी चिंता किसी को नहीं है. इस एकता यात्रा के जरिए 20 प्रांतों में मार्च आयोजित किया, लाखों लोगों ने इसमें भाग लिया. कई शहरों में स्वयंसेवक उन दिनों ट्रैफिक व्यवस्था तक संभाल रहे थे. 

25 हजार लोगों का पुनर्वास…

गुरु गोलवलकर ने 5 दिसम्बर 1962 को पीएम नेहरू को एक पत्र भी लिखा कि संघ इस आपदा की स्थिति में पूरा सहयोग देगा, नेहरू जी ने भी जवाब दिया और ‘सेवा के लिए धन्यवाद’ लिखा. बाद में नेहरू जी ने संघ को 1963 की गणतंत्र दिवस की परेड में भी भाग लेने के लिए आमंत्रित किया, 3000 स्वयंसेवकों ने उसमें पूर्ण गणवेश में मार्च किया, जिसको लेकर कांग्रेस के एक नेता पार्टी की बैठक में ये शिकायत भी करते दिखे कि कांग्रेस सेवादल ने हिस्सा क्यों नहीं लिया तो दूसरे नेता ने जवाब दिया कि हमारे मुख्यालय में बमुश्किल 250 यूनीफॉर्म ही होंगी. ऑर्गनाइजर के 3 फरवरी 1963 के अंक में इस खबर के साथ शीर्षक दिया गया, ‘सेवा से सम्मान मिला’.
संघ यहीं नहीं रुका, मार्च 1963 में देश भर के 500 स्कूलों में राष्ट्र रक्षा शिविर लगाए गए, जिसमें करीब 50,000 छात्रों ने भाग लिया. जून में संघ ने युद्ध शरणार्थियों की आसाम के बाढ प्रभावित 25000 लोगों के पुर्नवास में सहायता की. 

इस बीच देश भर की शाखाओं को सर्कुलर भेज दिया गया था कि इस बार की दीपावली ‘सेवा दीपावली’ के तौर पर मनाई जाएगी. 50 हजार से ज्यादा परिवारों को राशन दिया जाएगा. ‘बंच ऑफ थॉट्स’ के  पेज 192 पर ‘दीये जलाओ सेवा से’, शीर्षक के विस्तार में जानकारी मिलती है. इधर राष्ट्र रक्षा कोष के लिए संग्रह जारी था, करीब 2 करोड़ की धनराशि इकट्ठा की गई थी. जिससे सीमावर्ती गांवों में स्कूल और अस्पतालों के निर्माण में सहायता दी गई. माना गया कि इस अभियान में 2 लाख लोगों को युद्ध सहायता दी गई, जिनमें शरणार्थी, शहीदों के परिवार, विधवाएं और सीमावर्ती गांवों के लोग शामिल थे.

1963 के ‘सेवा दीपावली अभियान’ को लेकर ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गुरु गोलवलकर का आव्हान मिलता है, “इस दिवाली, सिर्फ़ अपने घरों को ही रोशन न करें, बल्कि भारत के हर कोने में सेवा के दीप जलाएं. सच्ची समृद्धि आसमान में आतिशबाजी से नहीं, बल्कि हमारे लोगों में आत्मनिर्भरता की ज्योति जलाने से आती है.” लेकिन ये केवल आव्हान भर नहीं था बल्कि देश की हर शाखा को सर्कुलर के जरिए दिवाली और उससे जुडे त्यौहारों यानी धनतेरस, छोटी दिवाली, गोवर्धन पूजा और भैया दूज को क्या क्या करना है, इसकी भी जानकारी भेजी गई थी. जैसे धनतेरस और छोटी दिवाली को आस पास की सफाई के अलावा खर्चे कम करते हुए उन्हें गरीबों पर खर्च करना है. स्वयंसेवक गांवों, गरीब बस्तियों में सफाई अभियान चलाएं और युद्ध विधवाओं को बर्तन आदि भेंट दें. 

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दिवाली के दिन पूजा अपने भले के लिए नहीं बल्कि राष्ट्र की समृद्धि के लिए करनी है, दिए अपने घर तो जलाएं ही, अनाथालय या गरीब बस्तियों में जाकर जलाएं. इस बार पटाखों पर पैसे ना खर्च करें. उस पैसे को गरीबों के लिए लगाएं. अकेले नागपुर में ही 500 जगहों पर दिए जलाने का कार्यक्रम आयोजित हुआ था.  गोवर्धन पूजा और भाई दूज के लिए वृक्षारोपण कार्यक्रम और विस्थापितों के परिवारों से वैसे ही मिलने को कहा गया जैसे अपने भाई बहनों से मिलते हैं, तमाम जगह लोग उनसे मिलकर मिठाई आदि उपहार देकर आए.

1963 की सेवा दिवाली न सिर्फ संघ के लिए बल्कि देश के लिए उदाहरण बन गई. आज भी सेवा भारती और सेवा इंटरनेशनल जैसे संघ से जुडे संगठन दिवाली को ‘सेवा दीपावली’ के तौर पर ही मनाते हैं. 1963 में संघ से स्वयंसेवकों ने ने 50 हजार से ज्यादा परिवारों को राशन, किताबें, कपड़े, मिठाई आदि पहुंचाई थी और बिना किसी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पटाखों से करीब परहेज ही किया था. शाखाओं पर भजनों के कार्यक्रम हुए, रामायण को लेकर बौद्धिक हुए, शहीद सैनिकों के परिवारों और विस्थापितों को भी अहसास हुआ कि देश के लोग इस आपदा में उनके साथ हैं.

पिछली कहानी: संघ के 100 साल: प्लेग में हेडगेवार ने खोए थे माता-पिता और भाई, तेलंगाना से नागपुर आकर बसा था परिवार

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