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पवन पुत्र श्री हनुमान बल, बुद्धि और कौशल के भंडार थे लेकिन उन्हें उनकी क्षमताएँ याद दिलानी पड़ती थीं। फिर बजरंग बली वह सब कर गुजरते थे जिसे अकल्पनीय समझा जाता था। मुझमें लेखन का खाँटी कौशल नहीं है पर आड़ा-तिरछा कुछ भी लिखकर मैं लेखकत्व का अमृत तो चखता ही रहता हूँ। बहुत दिनों से मैंने कुछ लिखा नहीं, किसी ने उकसाया भी नहीं। जैसे बड़े कलाकारों और रचनाकारों पर ‘आमद’ होती है, कल मेरे साथ भी वैसा ही कुछ हुआ और मेरे लेखन का रूका खटारा रेल मोहम्मद हो गया। वैसे किसी को नहीं बताने की शर्त पर यह भी कह दूँ कि ये सब बस कहने की बातें हैं। असल बात यह है कि मेरा इतना बड़ा फैन-बेस नहीं है जो मेरे लेखकीय हनुमान से मिन्नतें करे कि कुछ लिखिए, कुछ लिखिए, कुछ लिखिए ना। मैं लिखना भूल न जाऊँ, इस डर से मैंने स्वयं पर तकाजे का चाँप चढ़ाया। परिणामस्वरूप सोनार बांग्ला दोल्हा-पाती खेलता यह लेख आपके सामने है। झेलिए, झेल लीजिए, झेलना ही पड़ेगा। बच निकलने का विकल्प नहीं है।
लेख का शीर्षक देखकर इस भ्रम में मत पड़िए कि मैं बंगाल चुनावों की पंक पयोधि में गोता लगाने को आतुर हो रहा हूँ। ऐसा नहीं है। आमद वाले कोण से बात करूँ तो बताना पड़ेगा कि कल आँखों पर ‘जय बंगला’ का कोप हुआ और मैं ठप्रेक के इस मौसम में ए के हंगल का चश्मा लगाए घूम रहा हूँ। स्वयं को इतिहासकार बनाकर आपको पीछे ढकेलूँ तो शेख मुजीब के जॉय बांग्ला उद्घोष के प्रतिफल के रूप में यही ‘जॉय बांग्ला’ अपनी आँखों में लिए बांग्लादेशी शरणार्थी भारत आए थे और उन पर क्रूर पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत में प्रवेश के बाद भी गोलियाँ चलाई थीं। भारत ने इन शरणार्थियों को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि इनकी लाई आँखों की वायरल बीमारी ‘आँख आना’ को भी नेत्रीकार कर लिया था। यह वायरल बीमारी बंगाल में ‘जॉय बांग्ला’ कहलायी और बिहार-यूपी में ‘जय बंगला’। क्या ही संयोग है कि मेरी आँखों में ‘जय बंगला’ बांग्लादेश की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती वर्षगाँठ पर हुआ। यदि इतिहास मेरे साथ हार्श नहीं हुआ तो इसे बांग्लादेश की स्वतंत्रता पर मेरा उत्सव समझा जाएगा जिसमें मैंने चक्षु पीड़ा की भी परवाह नहीं की।
हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी जी लगभग साल भर बाद किसी विदेशी दौरे पर बांग्लादेश गये थे। इस दिन जाना बनता भी था। पाकिस्तान की दुखती रग का कल बरनॉल मोमेंट रहा होगा। साथ ही बांग्लादेश से आने वाली तरंगें सबसे पहले बंगाल ही तो पहुँची होंगी जहाँ पूरी कायनात दीदी के खिलाफ साजिश कर रही है। अब्बास सिद्दिकी बददुआएँ दे रहे हैं और शुभेन्दु अधिकारी नंदीग्राम में ही स्कूटी पंचर कर देने की जुगत भिड़ा रहे हैं। बहरहाल, मोदी जी ने हमेशा की तरह एक कंकड़ बांग्लादेश के सरोवर में भी फेंक दिया। लहरें बंगाल, बिहार, यूपी होते हुए दिल्ली तक पहुँच गयी हैं। फैक्ट चेकर्स और फैक्ट इस्टैबलिशर्स सक्रिय हो गये हैं। न तो मुझे पूरे मामले की जानकारी है और न ही मैं फैक्ट चेकर्स और फैक्ट इस्टैबलिशर्स की रोजी को रोजा बनाने की इच्छा रखता हूँ। लिहाजा, मामले को वहीं छोड़ मैं उन मुद्दों पर आता हूँ जिनकी मुझे पक्की जानकारी है।
बांग्लादेश के निर्माण का श्रेय इंदिरा गाँधी को दिया जाता है, दिया भी जाना चाहिए। यह प्रश्न भी नहीं किया जाना चाहिए कि सेना ने अदम्य साहस और पराक्रम नहीं दिखाया होता तो क्या लौह महिला की राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही बात बन जाती। इसके बावजूद ऐसे तमाम लोग हैं जिन्हें बांग्लादेश के गठन के लिए श्रेय मिलना चाहिए था पर उन्हें नहीं मिला। मुझे वे नाम सार्वजनिक करने दीजिए ताकि उस पर देश में सार्वजनिक बहस हो। बहस क्या खाक होगी, जिसके समर्थकों में लाठी का जोर होगा उसके योगदान को मान्यता मिल जाएगी।
इंदिरा गाँधी से श्रेय मत छीनिए लेकिन जरा इस तथ्य पर भी डीपली घुसकर विचार करिए। जिन्ना, जवाहिर और उनके विलायती सखा माउंटबेटन, गाँधी, पटेल और तत्कालीन काँग्रेस व मुस्लिम लीग नेता गण न होते तो कैसे कटता पाकिस्तान का बाँस और इंदिरा गाँधी कैसे बजातीं सोनार बांग्लादेश की सुरीली बाँसुरी। बंग बंधु शेख मुजीब निर्विवाद रूप से बांग्लादेश के संस्थापक हैं पर पूर्वी बंगाल के लोगों को लुंगी पहनने और भात खाने का ताना देने वाले और भारत द्वारा मड़ुआ की खेती आरम्भ करने पर ‘नो गोइंग बैक’ का दंभ भरने वाले याह्या खान को भी मत भूलिए। भारतीय सेना ने मुक्तिवाहिनी के साथ मिलकर वह कर दिखाया जिसकी उससे अपेक्षा थी लेकिन लंपट पाकिस्तान सैनिकों ने भी अपने जगमग इतिहास को दुहरा ही दिया ना।
गलत लिखे गये सदियों के इतिहास का रोना मत रोइए। स्वतंत्रता के बाद का इतिहास भी तथ्यों के साथ धोखधड़ी करता है। किसी ने नहीं लिखा ना कि सिंडिकेट काँग्रेस के खुर्राटों ने इंदिरा गाँधी को गूँगी गुड़िया सिर्फ इसलिए बताया था ताकि वह दिल पर लेते हुए चंडी रूप धारण कर लें। ऐसा हुआ भी और शेष इतिहास है। तो क्या हुआ जो इंदिरा को गूँगी गुड़िया बताने वाले अधिकांश खुर्राट नेता राजनीतिक रूप से स्वयं गुड्डे हो गये। बांग्लादेश के गठन में उनके इस त्याग को मान्यता देने का समय आ गया है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति को 4-5 वर्ष आगे इसलिए टाल दिया था ताकि इन्दिरा गाँधी बांग्लादेश बना सकें। संजय गाँधी ने भी बांग्लादेश गठन तक फुल्ल संजय मोड में आने से परहेज किया। वाजपेयी जी द्वारा बांग्लादेश मुक्ति पर इन्दिरा गाँधी की मुक्त कंठ प्रशंसा को देश आज तक नहीं भूला। वामपंथियों का योगदान भी नकारा नहीं जा सकता। कम से कम उन्होंने 1962 की तरह भारत के लालखंडी हो जाने की आस तो नहीं लगाई थी। आज के राजनीतिक पटल पर भुक भाक करते कई भुगजोगनियों का योगदान बिना नाम लिए बता देता हूँ। कुछ ने बांग्लादेश निर्माण के लिए दूधपिल्ली सत्याग्रह किया था और कुछ ने तो बांग्लादेश बनने तक इस धरा धाम को धन्य करने से साफ मना कर दिया था।
पूरे देश ने बांग्लादेश निर्माण में अपनी भूमिका निभायी। बंगाल जॉय बांग्ला भी हँसते हुए झेल गया। बिहार और यूपी ने भी बिना उफ्फ किए जय बंगला सहा। और तो और हमारे यहाँ नया कहावत ही बन गया – न आँख का आना ठीक न जाना। सभी संबद्ध व्यक्तियों और पक्षों को श्रेय देते हुए नया इतिहास लिखने हेतु सार्वजनिक विमर्श का समय आ गया है।
सिक्के का एक दूसरा पहलु भी है। बांग्लादेश बन गया। 90000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किये। जेनेवा समझौते के तहत उन्हें हलवा-पूड़ी खिलाया गया लेकिन शिमला समझौते में कौन जीता। बांग्लादेश निर्माण का श्रेय पाने वालों की सूची मैंने बता दी है, वार्ता की मेज पर भद्द पिटवाने वालों और भद्द पिटने के कारणों पर आप चिन्तन करिए। लगे हाथों इस पर भी विचार हो जाए कि स्वतंत्र बांग्लादेश ने भारत के साथ क्या-क्या किया।
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