शेयर करें
घर के बरामदे में पड़ा रॉकिंग चेयर मेरे बेटे लक्ष्य के चुहल से कभी कभी हिल जाता था। बाहर लॉन में टहलते हुई अक्सर मेरी नज़र उस पर चली जाती थी और मेरे अरमानों एवं अहसासों की बंद पोटली खुल जाती ।
नौकरी शुरू करने के बाद जब शादी हुई तो मेरे कई चीज़ों की बकेट लिस्ट में मेरा ये राकिंग चेयर भी शामिल था । बस एक दिन बाज़ार से ले आया था। काफ़ी विरोध भी झेला था …. क्या ज़रूरत है … फ़िज़ूल पैसा ख़र्च करने की … वग़ैरह वग़ैरह। पर अब तो मैं लेकर आ गया था अपने ख़्वाब की कुर्सी को।
केन का बना रॉकिंगचेयर जगह लेता था। अत: घर की ज़रूरत के मुताबिक़ उसे दायें बायें सरका दिया जाता था। मैं मौक़ा-बेमौका उसे सीधा कर पोंछ कर ख़ुश हो जाता था। दरअसल कई विज्ञापनों में और सिनेमा में देखा था कि लोग-बाग़रि टायर होकर आराम से घर बैठते है और रॉकिंग चेयर पर बैठ कर अख़बार पढ़ कर समय व्यतीत करते हैं। यही चीज़ मन में बैठ गई थी।
मैंने अपने पापा को कभी आराम से बैठे नहीं देखा था। हमेशा ज़िम्मेवारी निभाने में, रोज़ी कमाने में, लोक लाज पूरा करने में भागते ही रहे। गोले दाना के सितारदाना का एक अपना ही गाना अपनी धुन में गुनगुनाते रहते जब कभी एकांत में होते। कभी हममें से किसी को कंधे या गोद में झुला देते। यही उनका मनोरंजन, यही उनका आराम था।
जब मेरी फ़ौज की नौकरी लगी तो बस एक ही ख़्याल रहता था। ऐसा क्या करूँ कि उन्हें आराम से बैठा देख सकूँ। यहीं से मेरी कल्पना पापा और रॉकिंग चेयर से जुड़ गए, बचपन में देखे गये ओर सिनेमा की बदौलत। अपने तबादलों में मैं बड़े जतन से रॉकिंग चेयर सँभाल कर ले जाता रहा। पापा व्यस्त थे। मुश्किल से समय निकाल पाते। मैं दूर दराज़ इलाक़े में नियुक्त होता रहा। माँ अलबत्ता कई बार आकर चली गई। उनको बिठाया भी मैंने अपने रॉकिंग चेयर पर उन्हें उतना मज़ा नही आता। मेरा मन रखने को क्षण भर बैठ भी जाती और अगले पल किसी काम या बच्चों को देखने के बहाने उठ जाती थी। समय अपनी रफ़्तार में था। जीवनचक्र गतिमान था।
फिर एक दिन पापा अचानक हमें छोड़ गए। एक घटना से सब छिन्नभिन्न हो गया। परिवार, निकट समाज, हम सब टूट से गए। रीति रिवाज, लोकाचार को पूरा कर जब वापस ड्यूटी पर लौटा तो ख़ाली रॉकिंग चेयर ने घर में घुसतेही बुझे दिल से सवाल किया, “अब किसे बिठाओगे?” मैं निरुत्तर सा झोला रख ज़मीन पर बैठ गया।धीरे धीरे ज़िम्मेदारियों के बोझ में और घर-बार में उलझ कर मेरा मन, मेरे ख़्वाब कुछ पीछे पीछे छूट गए, कुछ नीचे दब गए।
अजीब बात है कि आज चौदह साल बाद भी वही सपना लगातार पीछा करता रहता है। जब भी लॉनमें जाता हूँ या पापा की तस्वीर के पास जाता हूँ तो रॉकिंग चेयर से जुड़ी भावनाएँ हिलोरें लेती हैं। हालाँकि अब लक्ष्य या कोई और उस रॉकिंग चेयर पर बैठ जाता है। ज़रूरत के मुताबिक़ उसे छत पर या गैरेज़ में भी रख दिया जाता है पर जब कभी चेयर हिलता है तो मेरी अधूरी ख़्वाहिश एक अनकहे दर्द की टीस दे जाती है। काश, पापा को थोड़ा आराम दे पाता, उन्हें रॉकिंग चेयर पर बिठा पाता …
लेखक – टी रजनीश (@trivedirajneesh)