Friday, March 29, 2024
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बिहार चुनावों की पड़ताल-5-भाजपा – मंडली

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जेपी टू बीजेपी – बिहार की राजनीति पर वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह की इस आने वाली पुस्तक का नाम यहाँ अकारण नहीं लिखा गया। चार-पाँच दशकों से जेपी के इर्द-गिर्द घूमती बिहार की राजनीति में बीजेपी का दौर आ चुका है। बीजेपी सत्ता में तो लगभग डेढ़ दशक से है पर उसकी असली धमक हुई 2014 के लोकसभा चुनावों में जब उसने मंडल के लाभार्थी पिछड़ा पुरोधा लालू प्रसाद और नयी सामाजिक अभियांत्रिकी करने वाले नीतीश कुमार को चारों खाने चित्त करके मोदी के नाम का डंका बजा दिया। 2015 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के दो दुश्मन दोस्त बन गये। बीजेपी को झटका लगा लेकिन दोनों दुश्मनों की आपस में निभ न सकी और बीजेपी फिर से सरकार में आ गयी। 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने किशनगंज को छोड़ पूरे बिहार को स्वीप कर दिया। तब से थोड़ी बदली परिस्थितियों में अब विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।

1980 में जनता पार्टी के पतन के बाद उसका एक घटक दल जनसंघ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में राजनीतिक पटल पर आया। 1990 में वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार एक तरफ वामपंथियों पर निर्भर थी तो दूसरी ओर भाजपा पर। राम मंदिर आन्दोलन राजनीतिक रूप ले चुका था। इस आन्दोलन की तीव्रता मंडल के बाद और बढ़ गयी। तभी से काँग्रेस के साथ मिलकर वामपंथियों और समाजवादियों ने भाजपा को राजनीतिक अश्पृश्य बनाने की तमाम कोशिशें कीं। बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार करके लालू यादव इस प्रवृत्ति के प्रमुख पात्रों में से एक बने। वह इस बात का गर्व से दावा करते हैं कि वह कभी भाजपा के साथ नहीं आए लेकिन ऐसा करते हुए वह संविद सरकार और राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का इतिहास भूल जाते हैं। वह इसे भी नजरअंदाज करते हैं कि जननायक कर्पूरी ठाकुर की सरकार भी जनसंघ के सहयोग से ही बनी थी। वही कर्पूरी ठाकुर जिनके राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का वह दावा करते हैं।

आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू बहुत मजबूत हुए लेकिन यह भी सत्य है कि उसके बाद भाजपा बिहार में डिफॉल्ट विपक्ष हो गयी क्योंकि सिर्फ वही लालू के कुशासन के विरूद्ध यथाशक्ति संघर्ष कर रही थी। वामपंथियों का जनाधार लालू के नेतृत्व में जनता दल लील रहा था और काँग्रेस उस रास्ते पर चल पड़ी थी जहाँ वह लालू को चुनौती देकर नहीं बल्कि उनका पोषण करके नाम के लिए अपना आस्तित्व बचा सकती थी। मंडल के जले और काँग्रेस द्वारा छले जाने के कारण सवर्णों का सीधा समर्थन भाजपा को मिला। दलितों और अल्पसंख्यकों का उससे मोहभंग पहले ही हो चुका था। पिछड़े मतदाता हमेशा ही समाजवादियों की तरफ थे, लालू ने इसे धारणा को यथार्थ में मजबूत कर दिया।

1994 में जनता दल से एक घड़ा जॉर्ज फर्णांडीज के नेतृत्व में टूटा और उन्होंने नीतीश कुमार के साथ मिलकर समता पार्टी बनायी। 1996 में समता पार्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया और यह कहा जा सकता है कि जॉर्ज जैसे समाजवादी का भाजपा से गठजोड़ ने भाजपा की तथाकथित राजनीतिक अश्पृश्यता को समाप्त कर दिया क्योंकि गठबंधन के दौर की राजनीति में तब भाजपा के सिर्फ दो सहयोगी थे – अकाली दल और शिवसेना। वही समता पार्टी कई रूप बदलते हुए आज नीतीश कुमार की जदयू है जिसका भाजपा के साथ दो दशक से अधिक का गठबंधन है।

बिहार में भाजपा-समता गठबंधन में भाजपा निर्विवाद रूप से वरिष्ठ साझेदार थी लेकिन लालू के पिछड़ा फैक्टर के काट के रूप में भाजपा ने 2000 में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जबकि तब भाजपा और जदयू के सीटों की संख्या क्रमश: 67 और 34 थी। हालाँकि वह सरकार गिर गयी लेकिन इस गठबंधन का नेतृत्व अगले दो दशक तक नीतीश कुमार के पास ही रहा, आज भी एनडीए के मुख्यमंत्री उम्मीदवार नीतीश ही है। आरोप भी लगा कि बिहार भाजपा के कुछ नेताओं ने भाजपा को (समता) जदयू की बी-टीम बना दिया है।

नरेन्द्र मोदी के उदय के बाद खटपट हुई। जदयू और भाजपा 2014 का लोकसभा चुनाव अलग-अलग साथ लड़े, जदयू को सिर्फ 2 सीटें मिलीं। नीतीश को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। 2015 विधानसभा चुनावों में जदयू-राजद साथ आए और भाजपा तीसरे स्थान पर खिसक गयी लेकिन 18 महीने के अन्तराल में ही दुबारा भाजपा-जदयू की सरकार बन गयी और तब से गठबंधन कायम है।

अपने विस्तार की कीमत देकर भी बिहार भाजपा ने गठबंधन साझीदार के रूप में लगभग आदर्श भूमिका निभाई है। नीतीश कुमार भाजपा से स्वयं अलग हुए लेकिन महागठबंधन के विरोधाभास से स्वयं ही भाजपा के पास आए भी। फिर भी जदयू को 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के बराबर सीटें दी गईं। नीतीश के नेतृत्व पर भाजपा ने कभी कोई गंभीर प्रश्न नहीं किया। यह सब अटल-आडवाणी युग से ही चल रहा है लेकिन मोदी-शाह युग की भाजपा वैसी नहीं है। यह अपना हक लेना जानती है और इतना राजनीतिक कौशल भी रखती है कि अपने हक से अधिक भी ले सके।

जैसे ही बिहार में भाजपा के जदयू से अलग होकर अपने पैर पर खड़ा होने की बात ही बात उठती है तो यह यक्ष प्रश्न उठता है कि नेतृत्व कौन करेगा। कैलाशपति मिश्र जनसंघ के पुरोधा थे लेकिन 1990 के दशक में भाजपा के डिफॉल्ट विपक्ष बनने के बाद इसका नेतृत्व सुशील मोदी, नंदकिशोर यादव, राधामोहन सिंह, अश्विनी चौबे, प्रेम कुमार और गोपाल नारायण सिंह आदि के इर्द-गिर्द घूमती रही है।

समता-जदयू गठजोड़ के बाद सुशील मोदी महत्वपूर्ण भूमिका में रहे हैं जिनकी छवि आम तौर पर कट्टर नीतीश समर्थक की है। साथ ही उनके पास चारा घोटाले के विरूद्ध लड़ी गयी लड़ाई का क्रेंडेंशियल है। 2015 में जदयू के छिटकने के बाद उसे दुबारा अपने पाले में लाने में उनकी भूमिका भूलने योग्य नहीं है। 2015 में जो भाजपा का हाई-टेक और हाई-फाई प्रचार न कर सका उसे सुशील मोदी के 40 से अधिक प्रेस काँफ्रेंस ने कर दिया जो लालू के भ्रष्टाचार पर थे। कट्टर नीतीश समर्थक और छाल्टी ट्वीट्स की उनकी एक छवि ट्विटर पर है लेकिन भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व भी तो इस चुनाव में भी नीतीश को ही मुख्यमंत्री मान रहा है और जब भाजपा-जदयू विलगाव हुआ था तब सुशील मोदी नीतीश कुमार के साथ तो नहीं गये थे। इसके बावजूद नयी स्थिति में भाजपा का नेतृत्व सुशील मोदी को मिलने की आशा क्षीण है। संजय जायसवाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाना संभवत: उनकी काट ही है।

गिरिराज सिंह जैसों का नाम ट्विटर पर उभर कर आया-गया हो जाता है। कभी उस शाहनवाज हुसैन का नाम भी उभरा था जो आज टीवी पर अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। कभी पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री संजय पासवान का नाम भी था जो संभवत: महादलित फैक्टर में पीछे छूट गये और आज एक विधान पार्षद बनकर रह गये हैं। यादव नेतृत्व के नाम पर नंदकिशोर यादव से हुकुमदेव नारायण यादव और यहाँ तक की रामकृपाल यादव की भी बातें होती रहती हैं। दशकों से चुनाव जीत रहे प्रेम कुमार भी एक दावेदार दिखते हैं लेकिन सबकी अपनी-अपनी सीमाएँ हैं – कहीं उम्र की, कहीं आधार वोट बैंक की और कहीं केन्द्रीय नेतृत्व के आशीर्वाद की।

एक नाम आजकल उभरा है नित्यानन्द राय का। उजियारपुर लोकसभा क्षेत्र से दो बार जीतना और कई बार विधायक होना उनकी उपलब्धि है। एवीवीपी से राजनीति में आने वाले इस यादव नेता का लालू के चरम में भी यादव राज के प्रति आकर्षित नहीं होने को उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता कही जा सकती है। लालू से लुभावने प्रस्ताव तो मिले ही होंगे। उनकी चुनाव सभा में अमित शाह ने कहा था कि इन्हें जिताकर भेजिये और यह मुझ पर छोड़ दीजिए कि मैं इन्हें क्या बनाता हूँ। नित्यानन्द राय गृह राज्य मंत्री बनाए भी गए। चुनाव प्रचार की समितियों में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण दिखती है। यादव संख्याबल का परसेप्शन है ही पर मोदी-शाह युग की भाजपा में बिहार में भी कोई खट्टर, फडणवीस या रघुवर के आने की संभावना को खारिज करना अपरिपक्वता होगी।

भाजपा का परम्परागत काडर वोट बैंक जनसंघ के जमाने से ही है। मंडल-कमंडल के बाद सवर्णों का एकमुश्त झुकाव भाजपा की तरफ हुआ। बनिया वोट बैंक पूरे भारत में भाजपा के पास है लेकिन बिहार में बनिया कहे जाने वाली अधिकांश जातियाँ पिछड़ी जातियों में आती हैं। इसे सुशील मोदी से जोड़कर भी देखा जाता है। यह भाजपा का सबसे विश्वसनीय वोट बैंक है। सवर्णों भाजपा को चाहते हैं लेकिन वे जाति फैक्टर पर वोट किसी और को भी कर देते हैं। निचले तबके में केन्द्रीय कल्याणकारी योजनाओं का असर भी हुआ है। रामकृपाल यादव जैसे नेता के आने से यादवों का वोट भी भाजपा को मिलने लगा है।

बिहार में भी नरेन्द्र मोदी का उतना ही क्रेज है जितना पूरे भारत में है। कुल मिलाकर भाजपा एक ऐसे दल के रूप में स्थापित हो गयी है जहाँ वह अल्पसंख्यकों को छोड़ लगभग सबका वोट पाने का दावा कर सकती है। लेकिन क्या इतना कि वह अकेले लड़ सके और जीत सके? इस पर कोई पक्का उत्तर नहीं होने के कारण आज नीतीश को एनडीए के मुख्यमंत्री उम्मीदवार हैं जबकि लोजपा के कारण एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है।

चुनावों में भाजपा सबसे अच्छी स्थिति में है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि टिकार्थियों की सबसे अधिक भीड़ भाजपा में ही थी और संभवत: सबसे अधिक बागी भाजपा से ही मैदान में हैं। 15 साल की एंटी-इनकमबेन्सी का असर भाजपा पर कम है और जो है वह नरेन्द्र मोदी की रैलियों के बाद शायद ही रहे। यह सच है कि बिहार के विकास पर भाजपा का विजन लगभग वहीं है जहाँ नीतीश कुमार का है। कोरोना वैक्सीन देने का वादा चुनावी है और इसे उतनी ही गंभीरता से लिया जाएगा जितना 10 लाख या 19 लाख रोजगार के वादे को लिया जा रहा है। जंगलराज का खौफ भाजपा भी जदयू की तरह बेच रही है, यह कुछ हद तक बिकेगा भी लेकिन युवाओं को शिक्षा और रोजगार के मुद्दे पर जीतने के लिए भाजपा के पास सापेक्षता का सिद्धांत ही है। बिहार बिजली और सड़क से आगे नहीं बढ़ सके, यह प्रश्न नीतीश से भी है और भाजपा से भी। डबल इंजन सरकार ने तीसरे कार्यकाल में सिंगल लोड भी नहीं लिया है। नीतीश की घटती लोकप्रियता सिर्फ जदयू को नहीं बल्कि भाजपा को भी चिन्तित कर रही होगी।

चुनौतियों के बीच भी जो माहौल है और जो सर्वेक्षण आ रहे हैं, उससे यह कहना सुरक्षित है कि भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी। लोजपा का फैक्टर ऐसा नहीं है कि वह चुनाव के बाद कोई उलट-पुलट कर सके, खेल थोड़ा-बहुत भले ही बिगाड़ दे। 2010 जैसी जीत नहीं हो पर सरकार एनडीए की ही बनती दिखती है और नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन उनका कार्यकाल पाँच साल का ही हो, यह तय नहीं है। अगले लोकसभा चुनावों तक गंगा में बहुत पानी बहेगा। क्या पता तब बिहार में यह हो ही जाए – जेपी टू बीजेपी।




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