Friday, April 19, 2024
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संसार के मालिक से एक काफिर की गुहार

कोरोना कहर के नए रंग पर विजय मनोहर तिवारी की नजर

या अल्लाह!
एक नया अल्फाज आया है आपकी बनाई दुनिया में
मौत का दूसरा नाम, दुनिया दहशत से भर गई है
कानून-कायदों और अक्ल से, सबको बचाने में सब लगे
कोरोना कहते हैं उसे-
एक-एक पॉजिटिव मुल्कों की ताकत पर भारी है
मरकज के भीतर झांका तो सब हैं सन्नाटे में
यह अजाब लादकर बैठे वे हजार की तादाद में
खुद मरने पर आमादा, सबको मारने पर उतारू
बरबाद, बददिमाग, बदमाश, बेहूदे, बदतमीज, बेखौफ
फारसी कहावत है-बाअदब बानसीब, बेअदब बेनसीब
वे बेअदब हैं, बेनसीब हैं, दूसरों के नसीबों को पौंछने वाले
मस्जिद तो घर है आपका, जिंदगी का जज्बा जगाने की पाक जगह
वे नामुराद कहते हैं-मरने का बेहतरीन ठिकाना
अकेले नहीं, इकट्ठे सबके मरने का एक इंतजाम है मस्जिद
आपका घर तो जिंदगी की राहत होगा, मौत का ठिकाना कैसे
कैसी जिद है, हाथ मिलाने की, गले लगने की, इकट्ठे होने की
शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी, मुजीब माेहम्मद, मौलाना साद
बेहूदगी, बेशर्मी, बेअक्ली के ये नायाब नमूने
इनको बनाने वाला कारखाना कब बंद होगा अल्ला मियां…

या अल्लाह!
निजामुद्दीन मरकज के ये हजार बीमार
हजार बमों से ज्यादा हरेक जानलेवा हद तक खतरनाक
आपकी राह में मरने-मारने के जुनून से भरे, वे हमेशा से ऐेसे ही हैं मालिक
खंजर, तलवार, तोप, बम और हवाई जहाजों की जरूरत अब किसे है
कोरोना जो है, कहते हैं अल्लाह का अजाब है काफिरों पर
या अल्लाह! हमारी तबाही का ऐसा इंतजाम, लेकिन क्यों
क्या यही अल्ला की राह है, जिसके लिए वे जिद ठाने हुए हैं
कहीं अकेले, कहीं जमात में, कहीं लाठी-पत्थर लेकर उमड़ी भीड़ में
शहर-शहर, अस्पताल-अस्पताल, देखो क्या है हाल-
वे थूक रहे हैं, गालियां हैं, बेपरदा हैं, सब शर्मसार हैं
तहजीब के तकाजे नहीं सीखे, मुसलमान कहलाने के पहले
इस अजाब को फैलाकर किसे क्या मिलेगा, मौत के सिवा
मरने-मारने के हुनर की तालीम इनको दी िकसने अल्ला मियां…

या अल्लाह!
कुछ तो छिपा नहीं है आपसे, जो बताऊं
मगर आपको ही मुश्किल न बताऊं तो कहां जाऊं
किसी ने लिखा कि एक मुसलमान भी जानता है कि
गणेश किसके पुत्र थे, गंगा को किसने अपनी जटाओं में उतारा
हम कितना जानते हैं मुसलमान के बारे में, इस्लाम के बारे में
आप तो सारे अालम के रब हैं, आपको तो पता है,
बंदे ने दो बार कुरान पढ़ा, और उसके नाम पर झपटे
हमलावर जत्थों की तारीख को भी देखा बार-बार
पत्थरों से बात की है, जाने किन-किन वीरानों में जाकर
जो खंडित हों या साबुत मगर झूठ कभी नहीं बोलते,
वे इंसान तो नहीं हैं, मुसलमान तो कतई नहीं
हालात ऐसे हुए कि लगा संसार के मालिक से ही गुहार करूं,
आपसे मन की बात कहूं, खुलकर
हमारे दरम्यां कोई परदा नहीं, कोई दीवार नहीं
न ऐसा कि मैं अलग, आप अलग
मुझमें ही आप हैं, मैं आपसे ही मुखातिब हूं, जैसे खुद से रूबरू
इस अजाब के वक्त भी कुछ न कहा तो कब कहूंगा अल्ला मियां…

या अल्लाह!
उनकी नजरों में काफिर हुए तो क्या, बंदे तो आपके हैं
क्या हमारी रगों में आप ही जिंदगी बनकर नहीं दौड़ रहे
जो जिंदगी दी तो डर कैसा, आप खौफ नहीं, हिम्मत देने वाले हो,
आप हमारी नेमत हो, नाश कभी नहीं,
आपकी ही शानदार कारीगरी है ये कायनात
जरा देखो धरती पर क्या चल रहा है, वो भी आपके नाम पर
ये अजाब तो अब आया है, आफतें पहले से बेहिसाब हैं
हर तरफ हैं, तरह-तरह की हैं और आपके नाम पर हैं
वे जो, बहुत चीखकर आपको पुकारते हैं, गौर से देखो-
तीखी तकरीरों में तूफान हैं, अमन कहां, मरहम कहां
जिंदगी देने वाले आप, मौत बांटने वाले वे,
राहत आपसे है, आहत उनसे हैं
ये इंसान हैं तो शैतान को भी सामने लाओ,
देखें, कौन ज्यादा डरावना
क्या इन्हीं के पास भेजा था अपने प्यारे रसूल को
क्या समझाने भेजा था, और ये बंददिमाग क्या समझकर निकले
क्या कहा था, क्या कर बैठे, क्या-क्या कर बैठे
इनके हाथों बदरंग होती दुनिया है, मिटते-मरते लोग हैं
औरतों की बेशुमार आहें, बच्चों की बेहिसाब कराहें
क्या आखिरत में इनसे इस बरबादी का हिसाब नहीं होगा अल्ला मियां…

या अल्लाह!
हमने सीरिया नहीं देखा, यमन नहीं गए, अफगानिस्तान भी नहीं
उनके हिस्से के आसमानों में आग, धुआं, राख क्यों है
ये हमले, कब्जे, खूनखराबा, मारकाट, कत्लेआम और धमाके
हिंदुस्तान तो कब से जख्मों को ही सहला रहा है
आपका ही शुक्र है कि मुल्क जिंदा है वर्ना कोई कसर नहीं छोड़ी
सब तरफ जुनून तारी है, आज इनकी, कल उनकी बारी है
खून से लथपथ सिंध से शुरू करो, सिंधु के आंंसू कहां सूखे हैं
जुनूनी जिहादी जत्थे आपका और प्यारे रसूल का ही नाम ले-लेकर आए
बरनी से पूछो, सिराज से पूछो, एसामी से पूछो,
बदायूनी और फिरिश्ता भी बताएं-
गुलाम, खिलजी, तुगलक, लोदी या मुगल,
तैमूर, नादिर, अब्दाली कैसे-कैसे उजड्ड
हिंदुस्तान की शान मिट्टी करने आए कि बढ़े अल्लाह की शान
बेकसूर औरतों के जौहर से उठा धुआं
आपकी आंखों में चुभा नहीं होगा
सदियों तक कटे सिरों की मीनारों ने सिर नहीं झुकाया होगा आपका
आप पर क्या गुजरी होगी मेरे अल्ला मियां…

या अल्लाह!
हजार साल कम नहीं होते सात आसमानों के मालिक
दस सदियों का लंबा तकलीफदेह फासला है ये
भारत पर इतने ही पुराने और इतने ही गहरे जख्म हैं
अल्लाहो-अकबर, अल्लाहो-अकबर, अल्लाहो-अकबर
गहरी खामोशियों में दिल के भीतर उठी खूबसूरत पुकार नहीं थी
वह जुनूनी भीड़ से फूटा एक भयानक शोर था
गली-गली से गूंजती डराने वाली हथियारबंद आवाजें
इलाके बदलते गए, चेहरे बदलते गए
तलवार, बम और बारूद वाले खून से सने हाथ वही हैं
सिंध वालों को याद न हो, अभी-अभी बिखरे कश्मीरी कैसे भूल सकते हैं
कभी गजनवी, गौरी, तुगलक, बाबर, औरंगजेब, जिन्ना
इन्हें झिंझोड़कर कब्रों से उठाना, पूछना इनसे-
इस्लाम और इंसानियत के मायने ये क्या समझ पाए
मजहब और गुनाह का बुनियादी फर्क भी इन्हें बताना
सब कुछ बनाने वाला सिर्फ मोहब्बतें बांटता है, मौत नहीं
प्यार से भरता है, खौफ और डर से नहीं
कहते तो हैं कि इस्लाम का मतलब अमन है,
यह अमन कहां है, कैसा दिखता है, कौन जानता है
उसका पता हमें जरूर बताना
या उसका सिर भी कलम हो गया मेरे अल्ला मियां…

या अल्लाह!
कम्बख्त काफिर कहकर दुत्कारा, बेइज्जत किया
हमारे इलाकों पर कब्जे किए, लूटा, मारा,
लगातार, सदियों तक, कोने-कोने में
हिंद का कोई काफिर
मक्का-मदीना में गुस्ताखी करके आया था
इंसानियत भी शर्मसार हो जाए, फिर ऐसे जुल्म क्यों ढाए
हमें मजबूर किया कि हम भी ईमान लाएं
मौत और बेइज्जती के बीच वह भी कुबूल किया
कहा कलमा पढ़ो, जोर से पढ़ लिया
कैसी शक्ल बना दी, जो निजामुद्दीन मरकज में दुनिया ने देखी
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हवाई जहाजों को बम बना दिया
कितने तबाह मुल्कों में बच्चे यतीम, औरतें बेइज्जत
यह तो ईमान की रोशनी नहीं हो सकती, घुप्प अंधेरा है
भेड़ियों की चीखपुकार है, चमगादड़ों का शोर है, उल्लुओं की आहट है
कोई डरावनी परछाई, कई डरावनी परछाइयां, सब तरफ सरसरातीं
अलकायदा, इस्लामिक स्टेट, तालिबान, बोको हरम,
और जैश, हुर्रियत, हिजबुल, तबलीग, कैसे-कैसे हो-हल्ले
वही पुराना शोर, धमाके, हर सदी में और ज्यादा खौफनाक
संकरी गलियों में पत्थर लेकर उमड़ता संख्या का पशुबल
ऐसी दुनिया, मेरे अल्ला मियां…

या अल्लाह!
और ये कम्बख्त काफिर किसने बनाए
पत्थरों पर कारीगरी का जानदार हुनर किसने दिया
बुतों में अपनी अक्ल से आपको ही उकेरा,
तस्वीरों में रंग भरे आपके ही
तरह-तरह के अंदाज में आपको ही तो गढ़ा और टटोला
हम मासूम हैं, बदमाश नहीं,
बदकार नहीं, बदनीयत नहीं
आपका कहां है कोई रंग-रूप, जो बुत में ढले
आप हर रूप में हो, हर रंग में हो, जर्रे-जर्रे में
यह अकीदत का हमारा तरीका है,
हजारों साल का यकीन
बुत बनाकर गीत गाए, ढोल बजाए, नाचे,
मानो आपका ही इस्तकबाल हो
बुतों में हमने आपका अहसास किया,
उन कम्बख्तों को सिर्फ बुत नजर आए
तो बड़ा काफिर कौन हुआ,
वे जो आपको देख रहे थे या वे, जिन्हें बुत दिखे
और वे आपके नाम का शोर मचाते हुए अकड़कर टूट पड़े
बुत-बुतखाने सब मिट्टी में मिला दिए,
मलबे से इबादतगाहें खड़ी कीं
लूट माले-गनीमत हो गई, आपके नाम को खौफ में बदल दिया
कौन गरीब हो गया, कौन मालामाल हुआ
ये सारी कायनात आपकी एक मामूली हरकत पर है
तो ये काफिर कहां से आए,
कौन इन बेकसूरों के हाथ खून से रंगकर खुश है मेरे अल्ला मियां…

या अल्लाह!
भारत माता से खतरा, वंदे मातरम् से खतरा
योग से खतरा, ध्यान से खतरा
गाना हराम, बजाना हराम, नाटक हराम, सिनेमा हराम
बुत हराम, बुतपरस्ती हराम
दुनिया के दो हिस्से- दारुल इस्लाम, दारुल हरब
हरबी काफिरों के कत्ल हलाल,
काफिर औरतें माले-गनीमत
कहां का नालंदा, कैसा विक्रमशिला, आग लगा दो इन्हंे
सारी किताबें दो कौड़ी की, जलाने के काबिल
एक ही किताब, और वही आखिरी किताब, मानो या मरो
गालिब का सवाल-या इलाही, ये माजरा क्या है
इस्लाम इतना कमजोर कि बात-बात पर खतरे में आ जाए,
या कमअक्लों ने दोजख सिर पर उठाई हुई है
इन बंदों के चेहरे के डिजाइन तो देखो, वे खिल्ली उड़वा रहे हैं,
दुनिया के देश शक से भर रहे हैं, सलीके सिखा रहे हैं
बड़े भाई का कुरता, छोटे भाई का पजामा, शक्ल-सूरत सुभानल्लाह
अपने बंदों से रुसवा न हो, रहम करो, ऐसा न बनाओ
बरकत आपसे है, रहमत आपसे है, उम्मीद आपसे है
सब आपके ही बंदे हैं, आपसे ही दुआ मांगते हैं
अक्ल दो, हुनर दो, सलीका दो, समझदारी दो
और सबको बराबर दो मेरे अल्ला मियां…

लेखक विजय मनोहर तिवारी के फेसबुक पेज से साभार

(लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी राय है।)

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