गीता में शोक और मोह में जकड़े, रथ के पीछे सिर झुकाकर बैठे अर्जुन को समझाते हुए श्रीकृष्ण उसे जन्म और मृत्यु का अटल सत्य समझाते हैं. वह कहते हैं कि ‘जिसने जन्म लिया है उसका मरण निश्चित है और जो मर गया है उसका फिर से जन्म लेना तय है. यहां वह मृत्यु और फिर जन्म लेने की बात कर रहे हैं और कहते हैं कि इसीलिए किसी की मृत्यु का शोक मिथ्या है.
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।
महाभारत के एक और प्रसंग में मृत्यु की चर्चा होती है. जब यक्ष युधिष्ठिर से सवाल करता है कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो इसके जवाब में युधिष्ठिर कहते हैं कि मनुष्य हर एक दिन किसी न किसी को अचानक ही मरते देखता है, फिर भी यह सोचता है कि उसकी मृत्यु अभी नहीं है. जन्म और मृत्यु जीवन के दो सबसे बड़े रहस्य रहे हैं. आदिम युग के भी आदमी ने सबसे पहले किसी की मृत्यु को बहुत ही रहस्य का विषय ही माना होगा. जो अभी जीवित था, जिसमें हलचल थी और जो बोलने, हंसने, चलने, कुछ कहने में सक्षम था वह अचानक ही ऐसा निर्जीव कैसे हो गया? इस सवाल ने जरूर मनुष्य को काफी झकझोरा होगा. इसीलिए जब वह कुछ कहने, सुनाने और या अपनी जिज्ञासाएं बता पाने में सक्षम हुआ तो उसने मृत्यु का जिक्र भी बहुत विस्तार से किया.
ऋग्वेद में सूर्य, चंद्र, इंद्र, अग्नि और रुद्र के साथ ही जिस एक और देवता का उल्लेख देवों की श्रेणी में हुआ है, उसका नाम यम है. यम यानी मृत्यु का देवता. पुराणों में आसानी से यम को मृत्यु का देवता मान लिया गया है, लेकिन असल में ऋग्वेद में यम खुद मृत्यु का देवता नहीं है, बल्कि वह धर्म का प्रतीक है और जिन लोगों को मृत्यु मार दिया करती है, यम उन्हें अपने लोक में रखता है. यानी यहां ऐसा लगता है कि यम और मृत्यु दो अलग-अलग देव हैं, लेकिन पुराण कथाओं में यम को ही मृत्यु देने वाला माना गया है. इन कहानियों में यम की दिशा दक्षिण बताई गई है और वह इस दिशा का लोकपाल है. इसीलिए दक्षिण दिशा मृत्यु की दिशा मानी जाती है और सनातन परंपरा में सिर्फ एक ही बार दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके खाना खाने का विधान है. जब किसी के पिता की मृत्यु हो जाती है तो वह दाह, तर्पण, जल और पिंड इन सभी का दान दक्षिण दिशा में ही करता है. तेरहवीं हो जाने तक भोजन भी इसी दिशा में मुंह करके करता है. सामान्य दिनों में दक्षिण दिशा की ओर बैठकर भोजन करने का निषेध है, क्योंकि वह मृत्यु की दिशा है.
ऋग्वेद में यम को विवस्वान यम कहा गया है. संभवतः इसी वजह से पुराणों में यम को सूर्य पुत्र कहा गया है. वेदों में विवस्वान सू्र्य का ही एक नाम है. ऋग्वेद के दशम मंडल का 14वां सूक्य यमसूक्त है. इसमें यम की स्तुति करते हुए कहा गया है कि, विवस्वान यम, तुम मृत आत्माओं को श्मशान की भूमि में से निकालकर उन्हें उत्तम लोक प्रदान करने वाले हो. इसलिए तुम आओ और यज्ञ की इस हवि को ग्रहण करो. तुम इस लोक में शांति रखो और प्रकृति के नियम को बनाए रखो.
परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्यः पन्थामनुपस्पशानम् ।
वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य ॥1॥
यमो नो गातुं प्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ ।
यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुरेना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः ॥2॥
मातली कव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिर्ऋक्वभिर्वावृधानः ।
भावः उत्तम पुण्य कर्मों को करने वालों को मृत्यु के बाद ठीक जगह पर ले जाने वाले और उनके कर्मों के अनुसार उन्हें शुभ स्थान देने वाले विवस्वान के पुत्र यम को हवि अर्पण कर उन्हें यज्ञभाग दो. इनके पास सभी को जाना ही पड़ता है. यही एक मात्र हैं जिन्हें पाप-पु्ण्य का ज्ञान है और यह धर्म को जानने वाले हैं. यम के मार्ग को कोई नहीं बदल सकता, जिस मार्ग पर हमारे पूर्वज पहले जा चुके हैं, उसी मार्ग पर हम सब अपने कर्म के अनुसार जाएंगे.
यम को धर्म कहने का चलन भी इसीलिए हुआ, क्योंकि यम अपने कर्तव्य में कभी नहीं डिगते हैं. जीवन का समय चक्र पूरा होने पर यम बिना भेदभाव के सभी के प्राण खींच लेते हैं. यही वजह है कि पुराण कथाओं में शिवि, युधिष्ठिर, विदुर और हरिश्चंद्र जैसे राजाओं को धर्म का अवतार माना जाता है. यह धर्म कोई और नहीं यमराज का ही एक और नाम है.
यम के जन्म को लेकर भागवत पुराण में कथा है कि वह सूर्य देव के पुत्र हैं. सूर्यदेव का विवाह विश्वकर्मा की पुत्री संध्या से हुआ था, लेकिन संध्या सूर्य का तेज सहन नहीं कर पाईं और उनसे दूर रहने लगीं. उन्होंने सूर्य की जुड़वां संतान यम और यमी के जन्म के बाद अपनी ही एक छाया को प्रकट किया और खुद पिता के घर रहने चली गईं. इस तरह सूर्य की चार संतानें हुईं. संध्या से यम और यमी, छाया से शनि और ताप्ती.
वेदों और उपनिषदों में यम को सत्य और धर्म का प्रतीक बताते हुए उसे ही सबसे ज्ञानी भी कहा गया है. जीवन के असल मूल्य को समझने और समझाने वाला यम ही है. इस बात पर कठोपनिषद की वो कहानी भी मुहर लगाती है, जिसमें एक सात साल के बालक नचिकेता को यम ने ही जीवन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान दिया था. कहानी कुछ ऐसी है कि नचिकेता के पिता वाजश्रवा ने एक बड़ा यज्ञ किया और अपनी सारी गायें दान करने का संकल्प लिया. वास्तव में ये गायें बीमार और बूढ़ी थीं. नचिकेता को यह अच्छा नहीं लगा. वह अपने पिता को दान से रोकने लगा और कहा कि दान तो अपनी प्रिय और उत्तम वस्तु का करते हैं. आपके लिए सबसे प्रिय तो मैं हूं, तो बताइए मुझे किसे दान करेंगे. नचिकेता के बार-बार इस तरह से सवाल करने पर वाजश्रवा गुस्सा गए और उन्होंने गुस्से में ही कह दिया कि जा मैं तुझे यम को दान करता हूं.
नचिकेता ने अपने पिता की बात रखने के लिए यमलोक की यात्रा की. वहां पहुंचकर उसने यमराज को प्रसन्न किया और उनसे जीवन के मूल तत्व का ज्ञान प्राप्त किया. इस कथा में यम के भयंकर स्वरूप का वर्णन तो हुआ है, लेकिन उन्हें शांत चित्त वाला और ज्ञान के साथ रहस्यवाद का ज्ञाता भी बताया गया है. कठोपनिषद में लिखी नचिकेता की ये कहानी जीवन की जिज्ञासाओं को लेकर मनुष्य में पाई जाने वाली उलझनों को सुलझाने की पहली कोशिश है.
ऋग्वेद के ही संवाद सूक्त में यम और उनकी बहन यमुना (यमी) के बीच होने वाली बातचीत भी दर्ज है. ये संवाद सूक्त भारतीय व्यवस्था में परिवार के मूल्यों को बताता है और इसके साथ ही भाई-बहन के बीच रिश्तों की जो पवित्रता होती है उसे अंडरलाइन भी करता है. ऋग्वेद में यम-यमी की इस कथा को लेकर वेद पंडितों में कई तरह के विरोधाभास भी हैं. असल में एक बार यमराज, यमी के घर जाते हैं. यमी और यम के पिता विवस्वान ही हैं, लेकिन अपने भाई से हमेशा अलग रही यमी उन्हें प्रेमी मान लेती है. जब यम, यमी के घर पहुंचते हैं तो वह उनसे अपने प्रेम का प्रस्ताव रखती है. तब यम उसे बताते हैं कि हम एक ही पिता और एक ही मां की संतानें हैं. तुम्हारी माता संध्या ही मेरी भी माता हैं. इसलिए आप मुझसे प्रेम का प्रस्ताव मत रखिए. यम की बात सुनकर यमी को बहुत निराशा होती है और वह पश्चाताप करने लगती हैं. ऋग्वेद में यम के इस निर्णय को बहुत ही महानता के साथ देखा गया है और यही कहानी भाई-बहन के बीच संबंधों की मर्यादा का उदाहरण भी बनती है.
ओ चित्सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान्
पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ।। 1 ।।
न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत्सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति
महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परि ख्यन् ।। 2 ।।
उशन्ति घा ते अमृतास एतदेकस्य चित्त्यजसं मर्त्यस्य
नि ते मनो मनसि धाय्यस्मे जन्युः पतिस्तन्व१मा विविश्याः ।। 3 ।।
न यत्पुरा चकृमा कद्ध नूनमृता वदन्तो अनृतं रपेम
गन्धर्वो अप्स्वप्या च योषा सा नो नाभिः परमं जामि तन्नौ ।। 4 ।।
यम और यमी की एक कहानी का वर्णन विष्णु पुराण, कूर्म पुराण और मार्कंडेय पुराण में अलग-अलग घटनाओं के संदर्भ में हुआ है. विष्णु पुराण के मुताबिक, यम एक दिन अपनी बहन यमी के घर पहुंचे. भागवत कथा के अनुसार जिसके दरवाजे यम (यानी मृत्यु) खुद पहुंच जाएं तो वो कहां खुश होता है, लेकिन इसके उलट यमी अपने भाई को देखकर बहुत प्रसन्न हुई. यमी ने यम को बहुत आदर से आसन दिया. उसे पकवान बनाकर खिलाए और उसे भोजन आदि से बहुत संतुष्ट किया. पहली बार अपनी ऐसी आवभगत देखकर यम बहुत प्रसन्न हुए और यमी से वर मांगने के लिए कहा. यमी ने अपने लिए कुछ नहीं मांगा बल्कि कहा कि जो भी बहन आज के दिन अपने भाई को इस तरह भोजन कराए, उसका अपने घर में स्वागत करे उसे काल का डर कभी न लगे. यम ने भी कहा जो भी भाई, आज के दिन अपनी बहन के घर जाकर उसे आदर-सत्कार देंगे और उसका ख्याल रखेंगे उन्हें अकाल मृत्यु का भय नहीं लगेगा.
पुराणों में यमुना नदी के बनने की कहानी भी यम-यमी के इस मिलन से ही निकलती दिखती है. जब यम ने यमी को बताया कि वह उसका भाई है और इसलिए वह यमी का प्रेम नहीं अपना सकता तो यमी को बहुत दुख होता है. वह पछतावा करने लगती है. धीरे-धीरे उसकी देह गलकर जल में बदलती जाती है और इसी जल की धारा से यमुना नदी निकलती है. यमुना नदी की प्राचीनता गंगा से बहुत पुरानी है. यम-यमी की इस कथा के बाद दीपावली के बाद पड़ने वाली यम द्वितीया के दिन का काफी महत्व है. इस दिन भाई-बहन के एक साथ यमुना स्नान का महत्व है और नदी किनारे ही कुछ भोजन बनाकर खिलाने की मान्यता है. उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में ये परंपरा चली आ रही है.
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